२२४ काव्य-निर्णय "काले पयोधराणामपतितयानैव शक्यते स्थातुम् । उत्कंठितासि वाले नहि नहि सखि पिच्छिलः पंथाः ॥ -सुभाषित पाठः अर्थात्-- रहि न सकत कोउ अपतिता, सखि पावस रितु माँइ । भई कहा उत्कंठिता, नहिं पथ फिसलत पाँह ॥" -पो० (अलंकार-मंजरी ) १३१, छेकापन्हुति से वक्रोक्ति और ब्याजोक्ति के उदाहरणों को प्रथकरण करते हुए शास्त्रशों का अभिमत है कि"वक्रोक्ति में अन्य की उक्ति का अन्यर्थ कल्पित किया जाता है, छेकापन्हुति में अपनी उक्ति का । व्याजोक्ति में उक्ति का निषेध नहीं होता, केवल सत्य का गोपन मात्र है, छेकापन्हुति में निषेध करने के बाद सत्य छिपाया जाता है। साथ ही इन प्राचार्यों ने अपन्हुति को ध्वनि भी मानी है।" अथ कैतवापन्हुति उदाहरन जथा- 'दास' लख्यौ टटको' करिक, नट कोऊ कियौ मिस कॉन्हर केरौ । याको अचंभौ न ईठि गनों, याहि दीठि को बाँधिबौ श्राबै घनेरौ।। मो चित में चढ़ि आप रहयौ, उतरै न उपाइ कियौ बौहतेरौ । तुहूँ कहयौ औ हो-हूँ लख्यो, इहिं ऊपर चित्त रहयौ चढ़ि मेरौ॥ वि०-"जहाँ कैतव-मिस, छल वा व्याज-श्रादि के शब्दों-द्वारा सत्यवस्तु ( उपमेय ) का निषेध कर असत्यवस्तु ( उपमान ) की स्थापना की जाय, वहीं" कैतवापन्हुति" होती है। दासजी के इस उदाहरण के साथ 'दूलह' कवि का यह निम्नलिखित छंद बरबस याद आ जाता है, जैसे- "भ.यो, सुहायौ, सो मैंन-भायौ, कयौ सुख सास न नंद ते मारी। मोते जुदो कबहूँ न रखो, कवि 'दूलह' मोमन प्रोन प्रवारी॥ कोक कलान के सीखति हूँ, रब होत है पाहल को मनकारी। सोजा सखी, भर में मति-री, यै खोजा हमारे ई मायके पारो।" पा०-१.(०) स्टको...। २. (का०) मो नई ठिगनी...' (२०) नई ठिगनी....१. (२०) तो-छ । (प्र०) तैहूँ । ४.(का०) रहै।
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