सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५४ काव्य-निर्णय "अहिंन - खिलाबतु है, मगन - लरावतु है, सुकन-पदावतु है नेकु ना टरतु है। कबहूँ कै संख-परि 'संभु जू की पूजा करे, कबहुँक के कुंड - बूड़ि सिंघन धरतु है॥ कबहूँ के कदली के खंभ ते लपेटि जंघ, कबहूँ के कंज सिर • राखि बिहरतु है। जा दिन ते न्हात चार-आँखें भई ता दिन ते, बाबरौ-सौ भाँति-भाँति भावनों करतु है।" अथ परिनाम रूपक लच्छन जथा- करत जु है उपमाँन है, उपमेऐं को कॉम । नहिं दून अँनुमानिएँ,' है भून 'परिनॉम' । वि० - "जब उपमान होकर उपमेय का कार्य करे, अर्थात् किसी कार्य के करने में जहाँ उपमान उपमेय से अभिन्नरूप होकर उस कार्य के करने को समर्थ हो, तब 'परिनाम' (परिणाम ) अलंकार कहा गया है । दासजी,-"जहाँ उपमान होकर उपमेय का कार्य करे, वहाँ उक्त अलंकार मानते हैं। संस्कृत-साहित्य के अलंकाराचार्य - विशेष कर पंडितराज जगन्नाथ 'परिणाम' और 'रूपक' के समान उदाहरणों में रूपक और परिणाम को प्रथक्ता बतलाते हुए कहते हैं कि "जहाँ उपमान स्वयं किसी कार्य के करने में असमर्थ होने के कारण उपमेय से एक रूप होकर उस कार्य ( उपमेय-द्वारा होने योग्य कार्य) को करे तब वहाँ 'परिणाम', और जहाँ उपमान स्वयं ही ( अपने ) किसी कार्य को ( उपमेय की बिना सहा- यता के ) करने में समर्थ हो, वहाँ रूपक होता है-"विषयिणः प्रकृतोपयोगि- तायावच्छेदकीभूतं विषयाताद्र प्यं परिणामः । विषयी यत्र विषयात्मतयैव प्रकृतो- पयोगी न स्वातंत्रेण स परिणामः । अत्र च विषयाऽभेदो विपयिष्युपयुज्यते रूपके तु नैवमिति रूपकादस्य भेदः-( रस-गंगाधर)।" पर अलंकार-सर्वस्त्र (संस्कृत) के रचयिता इस मत के विपरीत हैं। आपने पंडितराज के रूपक के विषय को परिणाम का विषय मान इन दोनों के भेद में कहा है कि "रूपक में उपमेय के स्वयं समर्थ रहते हुए भी आरोपमाण ( उपमेय ) का किसी कार्य करने में औचित्य-मात्र होता है, और परिणाम में बिना उपमान के श्रारो-बिना उपमेय कार्य नहीं कर सकता। इस लिये पंडितराज के युक्ति-संगत मत रूपक और , पा०-१.( का०) (३०) उनमानिए...।