पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३७७

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३४२ काव्य-निमय गारी-दै चलँन, मचलॅन रोषवारी पै. भाग-भरी सौगुनों सुहाग छजकतु है। स्यों-त्यों बिन-दौम स्याम सुंदर बिकानों जात, ____ ज्यों-ज्यों बॉम-लोचन में लाली बलकतु है। प्रथम व्याघात के उदाहरण-स्वरूप दासजी के-"तो सुभाब भाँमिन लखें." इस छंद के साथ "मतिराम" जी का 'प्रत्यक्ष दर्शन' से देदीप्यवान नीचे लिखा छंद भी सुंदर है, यथा- "मोहन लला को मन-मोहिनी बिलोकि बाल, कसि करि राखति है उमगे उँमाह कों। सखिन की दीठ को बचाइ के निहारति है, ऑनद-प्रबाह-बीच पाबत न थाह कों॥ कवि"मतिराम और सब-ही के देखत ही, ऐसी भाँति देखति छिपावति उछाह कों। वे ही नेन रूखे-से लगत और लोगँन कों- वे-ही नेन लागत स्नेह-भरे नाह को ॥" अथ घिसेसोक्ति लच्छन बरनन जथा- हेतु चॅने-ह काज-बिन' 'बिसेसोक्ति न सँदेह । देह-दियौ' निसि-दिन बरै, घटै न हिय को नेह ।। वि०-'कारणों के रहते हुए भी जब कार्य की उत्पत्ति न दिखलाई जाय, अथवा दासजी द्वारा कथित-"जब अति हेतु के रहते हुए भी कार्य की उत्पत्ति न हो तो, वहाँ विशेषोक्ति' मानी जाती है। विशेषोक्ति, तीन शब्दों-"वि' "शेष" और "उक्ति" का संयुक्त रूप है। अतएव 'वि' का अर्थ है-'गत' और 'शेष' का अर्थ है-'कार्य' और उसके सामु- हिक रूप का अर्थ है “गत हो गया है कार्य जिसका, ऐसे कारण की उक्ति । अर्थात्, कारण होते हुए भी कार्य का न होना कहा जाना । संस्कृत-अलंकार ग्रंथों में-"किंचित् विशेष प्रतिपादयितुमुक्तिः, अर्थात् कुछ विशेष बात के प्रति- पादन के लिपे उक्ति" कहा गया है और इसके तीन भेद-"अनुक्त-नि- मित्ता" ( कार्य के उत्पन्न न होने का निमित्त न कहा जाना), "उक्त-निमित्ता" ( कार्य के उत्पन्न न होने का निमित्त कहा जाना ) और "अचिंत्य-निमित्ता ( कार्य के उत्पन्न न होने का निमित्त अचिंत्य होना ) कहे गये हैं। पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) नहिं । २. (का०) (प्र०) दिया... (प्र०) दिसा....