पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४२९

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२६४ काव्य-निर्णय साथ लिखा है । वामनाचार्य ने जिस 'विसदृश' रूप एक भेद के अंतर्गत न्यून और अधिक रूप दोनों भेदों का संग्रह कर दिया था, उसे साहित्य-दर्पण के कर्ता ने न्यूनाधिक-परक व्याख्या के साथ कुछ नतनता ला दी है । वामन के 'विसदृश' को सम, न्यून और अधिक में विभक्त कर सुदरता भर दी है।" ब्रजभाषा-अलंकार-ग्रंथों में परिवृत्ति के एक वा दो भेदों का-ही उल्लेख मिलता है, जो "योड़ा देकर बहुत अथवा बहुत देकर थोड़ा लेना" रूप में विभक्त है । " "भाषा-भूषण" और "कविकुल-कंठाभरण" में थोड़ा देकर बहुत लेने में, 'ललित-ललाम' में-"घाटि-बाढ़ि = बात को, जहाँ पलटिबौ होइ" और दासजी के इस "काव्य-निर्णय" ग्रंथ में "बहुत देकर थोड़ा लेने" रूप एक-ही भेद में यह अलकार माना है । पद्माभरण में- “थोड़ा देकर बहुत" और "बहुत देकर थोड़ा लेने पर दो रूपों में यह अलकार माना है।" ___एक बात और, वह यह-परिवृत्ति में विनमय-"कवि-कल्पित” होता है, वास्तविक नहीं । जहाँ वास्तविक विनमय (लेन-देन) होगा वहाँ यह अल कार नहीं होगा। साथ ही अपनी वस्तु के त्याग-ग्रहण रूप कथन में भी यह अल- कार नहीं होता । कविं-कल्पना-द्वारा कुछ वा विशेप, विशेष वा कुछ देने-लेने में-ही यह अलंकार होता है । ब्रजभाषा में इसके विपरीत- "बहुत लेकर कुछ न देना" रूप कुछ सुंदर सूक्तियाँ भी मिलती है, जैसे प्रति सूधौ सॅनेह को मारग है, जहाँ नेक, सयाँनप-बॉक नहीं। तहाँ साँचे चलें तजि आपन पौ, झिझिक कपटी जो निसाँक नहीं। 'फॅनमानद' मीत सुजॉन सुनों, यहाँ एक ते दूसरौ आँक नहीं। तुम कोंन - धों पाटी पढ़े हो लला, 'मन' लेति हौ देति छटॉक नहीं। यहाँ पोद्दार कन्हैयालाल (अलकार-मंजरी ) जी का कहना है -"यहाँ मन लेकर बदले में छटाँक भी न देना,"कम-विशेष देकर "कम-विशेष" 'अवश्य' लेने के विपरीत है, बदले में कुछ भी नहीं मिलना ऐसे कवि-प्रतिमापूर्ण वर्णनों में "अपरिवृत्ति" (नामक नया ) अलकार माना जा सकता है । अपरि- वृत्ति पूर्वाचार्यों ने निरूपण नहीं किया है, परंतु (ऐसे उदाहरण रूप) इस 'अपरिवृत्ति' में चमत्कार होने के कारण उसे मानना उचित अवश्य है।" अथ परिवृत्त-उदाहरन जथा- विय, कंचन-सों तन तेरौ उन्हेंमिलिबौ' भयो सोंतुख को सपनों। उन को नग-नील-सौ गाव है वैसें-हिं, वो बस 'दास' कहा लपनों ।। पा०-१. (का०) (३०) (स० पु० प्र०) मिलिके...। २. (का०) ३०) (प्र०) तैस-ही ..।