काव्य-निर्णय वि०--"दासजी का यह छंद तृतीय प्रहर्षण-जतने ढूढत वस्तु के, बस्तू श्राव हाथ", (वांछितार्थ वस्तु की प्राप्ति के लिए यत्न ढूढने के साथ-ही वांछितार्थ-वस्तु का मिल जाना ) का उदाहरण है। साथ-ही यह छंद "मुदिता-नायिका" ( नायिका-भेदानुसार ) का उदाहरन भी है, जिसे आपने अपने 'शृगार-निर्णय' नामक ग्रंथ में दिया है। मुदिता नायिका का लक्षण - "वहै बात बँमि भावई, जो चित-चाँहति होइ। नाते भानदित महा, 'मुदिता' कहिऐं सोइ ॥ --शृंगार-निर्णय इस छंद में शृंगार-निर्णयानुसार पाठ भेद भी हैं, जो पाठांतर में नीचे दिया गया है, फिर भी यहाँ दो वात विशेष कहनी है-दो शब्दों 'दूंनो' और 'पूँ नों' के प्रति कुछ अधिक कहना है, जो 'V नों' शब्द के फेर में वो हैं। दूनों शब्द 'बजावधी' है जो 'दोनों' के अर्थ का द्योतक है, पर 'पूनों' पूर्ण के अर्थ में कहाँ और कब प्रयुक्त होने लगा, कुछ कहा नहीं जा सकता । पूँनों शब्द ब्रज में पूर्णिमा के लिए अाज भी प्रचलित है। शायद इसी से अापने यह निर्माण किया हो...। इसी प्रकार दूसरे चरण में आई हुई "तकाई" क्रिया भी 'महा- बोर प्रसाद मालवी 'बीर' के अर्थ-मान्य को दृष्टि से विचारणीय बन गयी है। क्योंकि आपने स्वसंपादित 'काव्य-निर्णय' में इसका अर्थ 'दिखाकर" माना है, किंतु यहां यह 'तकाई' तकना (सक्रि०)-देखने से नहीं, "तकाने" से बनी है, जिसका अर्थ होता है 'देखने का काम दूसरे से कगना, दूसरे को सँभाल कर जाना, जिससे उसकी अनुपस्थिति में कोई हानि न हों । मुहावरे में भी-- “दादी जी, कु जा घरकूॐ ताकियों मैं अभई आई..."इत्यादि...।" अथ विषादँन-अलंकार लच्छन जथा- सौ 'विषाद' चित-चाँह ते', उलटौर कछु जाइ। सुरत सँमें पिक पातको', कुहू' दियो समझाइ ।। वि०-"जिस बात की चित्त (मन) में इच्छा होने पर यदि उससे "उलटा हो जाय-जिस बात की चित में इच्छा है, पर उससे विपरीत हो जाय, तो 'विषाद' वा 'विषादन' अलंकार माना जायगा और यदि अधिक-अल्प रूप में कहा जाय तो -“जहाँ वांछितार्थ के विरुद्ध लाम होने का वर्णन हो" वहाँ भी उक्त अलकार माना जायगा। पा०-१. (सं० पु० प्र०) सों०...। २. (का०) (३०) मैंनचामों है...। ३. (का०) (३०)(२० पु० प्र०) पापिनी...। ४. (का०) कुहू कियो री हाइ ।
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