पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय "हरिजू की गैस यह, मेरी पौरि भगवा-सों, पाँ-हैकल्यौ ही चहें मोहि काम घर को। ताको घरहाई, दुखहाई सोर पारती हैं, बास छोदि दीजै के निकसियो डगर कौ ॥ 'ठाकुर' कहत हों कराहन भई हों सुनि, सकता उराहनों जु है रौ अघर को। घरी-पैहैर होइ तौ बचाएं रहों मेरी बीर, देहरी - दुमार दुख भाठ - हूँ पहर कौ ॥ "राजे - उल्फत, ऐ दिले-बेताब, अफशा कर दिया। खुद भी रुसवा हो गया, मुझको भी रुसवा कर दिया । अथ 'निरुक्ति' अलंकार लच्छन जथा- "है 'निरुक्ति' जाह नॉम की अरथ-कल्पना आँन । दोषाकर ससि को कहें, याही दोष सुजॉन ॥" वि०-"जहां किसी नाम की अर्थ-कल्पना दूसरी की जाय, वहाँ 'निरुक्ति अलंकार' होता है, जैसे-शशि को दोषाकर ( दोषों का घर ) कहना । भाषा- भूपण में इसका लक्षण इस प्रकार दिया है, यथा- ___ 'सो 'निरुक्ति' जब जोग ते अर्थ-कल्पना भाँन।" अर्थात् , जब किसी योग के कारण (नाम के-संज्ञा के, किसी विशेष जोड़- तोड़ से ) कोई अन्य अर्थ की कल्पना की जाय, तब वहाँ यह अलंकार कहा जाता है। निरुक्ति का अर्थ है-युक्ति, योजना-शब्द, या पद की व्युत्पत्ति-युक्त व्याख्या करना । अतएव यहां किसी ऐसे शब्द की जो किसी व्यक्ति श्रादि का नाम हो, उसकी प्रसिद्ध यौगिक व्याख्या को छोड़ यौगिक शक्ति से चमत्कार- युक्त कल्पना-द्वारा दूसरो व्याख्या की जाती है। चंद्रालोक में "गुणों के अंगांगीभावों की तुलना दिखलाते हुए उसे एक विशेषणामक नाम देने को 'निरुक्त' कहा है, यथा- निरुक्त स्पान्निवंचनं नाम्नः सत्यं यथा नृतं । ईशश्चरितै राजन्सत्य दोषाकरो भवान् ॥" , पा०-१. (प्र०) को, जोग-कल्पना...।