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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५२१

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काव्य-निर्णय 'प्रत्पनीक' प्रबल विपन-पच्छ पै प्रकोप....... इत्यादि इन (संस्कृत तथा ब्रजभाषा के ) सभी लक्षणों पर दृष्टि डालने से उनकी पक्ष-विपक्षता प्रकट हो जाती है-मिन्नता लक्षित हो जाती है। ___ संस्कृतानुसार प्रत्यनीक का अर्थ सेना के प्रति, प्रतिपक्षी या शत्रु की सेना और सैन्य का प्रतिनिधि (प्रति+अनीक) किया जाता है, यथा प्रति-"प्रति प्रति- निधौ वीप्सालपणादौ प्रयोगतः" (अमर० ) तथा अनीक-"अनीकोऽस्त्रीरणे- शैन्ये" (. मे० को०) अस्तु, प्रत्यनीक में सैन्य का अर्थ लक्षणा से 'शत्रु' और 'शत्र का प्रतिनिधि' माना गया है। इस लक्षणानुसार शब्दार्थ-द्वारा शत्रु के प्रतिनिधि ( संबंधी) का तिरस्कार यहाँ किया जाता है। ये संबंधी दो प्रकार के होते हैं-'साक्षात्संबंधी' और 'परंपरागतसंबंधी' । साक्षासंबंधी में-'शत्रु के साथ साक्षात्संबंध रखने वाले का तिरस्कार किया जाता है और परंपरागत- संबंधी में शत्रु के संबंधी के साथ संबंध रखने वाले का तिरस्कार किया जाता है। संस्कृत के अलंकार-ग्रंथों में प्रत्यनीक स्वतंत्र अलंकार के रूप में वर्णन किया गया है, फिर भी वहाँ इसके साथ 'हेतूपक्षा' जुड़ी हुई मानी गयी है । यही नहीं, पंडितराज जगन्नाथजी तो इसे हेतुत्प्रक्षा के अंतर्गत ही मानते हैं, परंतु शत्रु का-ही नहीं, शत्रु के संबंधी का भी तिरस्कार किया जाना ही इस अलंकार की विशेषता है । अर्थात्, यहाँ उत्प्रेक्षा की प्रधानता नहीं, शत्र-संबंधी तिरस्कार ही प्रधान रहता है । अतएव स्वयं शत्रु के जीतने में असमर्थ पाकर उस ( शत्रु ) के संबंधी को तिरस्कृत किये जाने पर यह अलंकार बनता है।" __ अस्य उदाहरन जथा- मदन-गरब-हरि, हरि कियौ-सखि परदेस-पयाँन । . वही बर-नाते अली, मद्न हरत मो प्रॉन ।। तेरे हास-बेसन औ सुंदर सुकेंसँन सो', - छीनी छबि लींनी 'दास' चपला-घुनन' की। जॉन के कलापी की कुचाली ते मिलापी मोहि, . लागे बरे लेन क्रोध मेंटॅन मॅनन की। पा०-१.( का० ) जो... (३०) ज...। (प्र०) लों...। २. (का०) (वे.) (प्र.) (स पु० प्र०) छीनि...। ३. (रा. पु० नी०सी०) घनौन की । ४. वे.) तो...। ५. (रा० पु० नी० सी०) मनीन...।