पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५३३

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४५८ का निर्णय यथासंख्य- 'संख्या के अनुसार', 'उसी क्रम से' तथा पूर्ववत् क्रम से, आदि ....कहा जाता है । अपक्रम (जिस क्रम से कुछ वस्तुओं का वर्णन किया गया हो उसी क्रम से बाद में उनका वर्णन-उपमा-श्रादि देते कथन न करना) या क्रम-भंग नो काव्य का एक दोष विशेष है, उस दोष के प्रभाव स्वरूप में यह अलंकार कहा जाता है । इसलिये कुछ पा वार्यों ने इसे अलंकार न मानते हुए कहा है कि यहां दोषों का अभाव-मात्र-ही तो कथन किया गया है ? अतः इसे अलंकारों में स्थान देना उपयुक्त नहीं, पर इसके दोष-हीनता वर्णन करने में-ही तो चमत्कार है,-उक्ति-वैचित्र्यता है, इसे-ही लक्ष्य कर दंडी श्रादि प्राचीन श्राचार्यों ने इसे स्वतंत्र अलंकार माना है। ___ संस्कृत-अलंकार-ग्रंथों में इसके दो भेद 'शान्द' और 'श्रार्थ' रूप में मिलते हैं। शान्द-यथासंख्य उसे कहते हैं-जहाँ समास से नहीं, क्रम से अन्वय हो और जहाँ समास-द्वारा क्रम से भन्वय हो उसे "प्रार्थ-यथासंख्य" कहते हैं। अतएव "क्रमशः कहे हुए अर्थों का जहां क्रमशः (यथा-क्रम) संबंध होता हो उसे "यथासंख्य" कहना चाहिए।" अस्य उदाहरन जथा- 'दास' मन-मति सों, सरीरी' सों, सरति सो. गिरा सों, गेह-पति सों न बाँधिवे' की बारी । मोहै, मार-डारे, साजि सुबस उजारै, करै- भित बनाइ ठाइ' देति' बैर भारी जू । मोहन भो मारन, बस करन, उचाउँन', ___ थमन, उदोपॅन' के ए-ही हदकारी जू । बाँसुरी- बजैबौ, गैबो, चलिबौ, चितवी, मुसिकैबौ, इठलैबौ रावरे गिरधारी जू ॥ वि०-"यथासंख्य उपनाम क्रमालंकार का उदाहरण "रसलीन", जिस पर कोटों हिंदू कवियों को वारना कहा गया है, बड़ा सुंदर है, यथा- "मी, इलाहल, मद-भरे, सेत, स्याँम, रतनार । जियत, मरत, झुकझुक परत, जिहिं चितबत इक बार ।। पा०-१. (रा० पु० प्र०) सरीर...। २. (३०) बांचिबे...। ३. (प्र०) धाइ...। ४. ( का०)(३०)(प्र.) देतो। ५. (का०) (३०)(प्र०) मोहन, मरन, बसीकरन, उचाटन के, । ६. (३०) उदेखन...। ७. (का०) (३०)(प्र.)बाँसुरी-बजावो, गइबी, चलिबी, चितैवी, मुसिकश्वौ, मॅठिलइयो राबरे को...।