सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय १९ पुनः दोहा' जथा- जॉमें अभिधा-सक्ति-तजि, अरथ न दूजो कोह। इहौ२ काब्य कीन्हें बनें, न तो मिस्रतै होइ । अभिधा सक्ति को उदाहरन 'दोहा' जथा मोर-पच्छ को मुकट सिर, उर तुलसी-दल-माल । जमुना-तीर कदंब-ढिंग, मैं देखे" नंदलाल ॥ वि०-'अभिधा में-रूड, यौगिक और योगरूढ तीन प्रकार के शब्दों का प्रयोग होता है। 'रूढ' शब्द वे जिनकी व्युत्पत्ति न हो, 'यौगिक वे जिनका अर्थ उनके अवयवों से होता हो और 'योगरूढ वे जो योगिक होते हुए भी रूढ हों-जिनसे किसी विशेष वस्तु के लिये ही प्रस्तुत किये जाने की प्रसिद्धि हो-रूढि हो । जैसे-"मोर-पच्छ कौ...." रूप उदाहरण में । 'मोर, पक्ष, दल, माल, तीर, कदंब, नंद और लाल' सब अनेकार्थी हैं, पर इन द्वारा यहाँ एक ही अर्थ 'अभिधेय' है।" लच्छना-सक्ति बरनन 'दोहा' जया- मुख्य अरथ को बाध करि, सब्द लच्छना होत । 'रूढ़ि' और 'प्रयोजनवती', है 'लच्छना उदोत ॥ वि०-मुख्य अर्थ के बाध होने पर रूढि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से संबंध रखनेवाला अन्य अर्थ लक्षित हो उसे "लक्षणा" कहते हैं और यह 'रूढि' और 'प्रयोजनवती' नाम से दो प्रकार की होती है। लक्ष्वार्थ-वाचक शब्द को 'लक्षक' और लदयार्थ-निर्धारिणी शक्ति को 'लक्षणा' कहते हैं। मुख्यार्थ को ग्रहण न करने का कारण कवि या लोक-परंपरा मानी जाती है, अथवा कोई प्रयोजन होता है । यथा- "मुख्यार्थ बाधे तद्योगे रुढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्य ऽर्थो लक्ष्यते (नत्र) लक्षणारोपिता क्रिया ॥" पा०-१. (प्र०) करि...। २. (प्र०) (३०) यहो...। ३. (भा० जी०) मिस्रतौ। (प्र०) ना तौ मिस्रित होइ । ४. (३०) मोर-पंख...। ५. (प्र०) देख्यो। (३०) देखौं । (सं० प्र०) मैं देखी...। ६. (प्र०) मुख्य-अर्थ के बाध ते । (३०)...बाध सों। ७. (प्र०) शब्द लाच्छि- निक...। (३०) सब्द लच्छिनिक...। ८. (३०) रुदी-प्रयोजनवती। (रा० का०) रूद-प्रयो- जनुवती।

  • , व्यं० म० (ला० भ०) पृ०६ ।