पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५४४

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काव्य-निर्णय ५०६ से कहे जाय तो मालोपमा-ही की भाँति रसनोपमा होगी, इसके दो भेद- "अभिन्न साधारण धर्मों वाली" तथा मिन्न-भिन्न धर्मों वाली रसनोपमा रूप से होंगे। साहित्य-दर्पण-रचयिता कहते हैं-... कथित रसनोपमा। ययोर्ध्व- मुपमेयस्य यदि स्यादुपमानता ॥” अर्थात् उपमेय जहाँ उत्तरोत्तर वाक्यों में उपमान हो जाय वहाँ रसनोपमा कही जाती है। ब्रजभाषा के पूर्व अलकारा- चार्य चिंतामणजी ने भी इसे उपमा-प्रपंच के साथ लिखते -वर्णन करते हुए इसका लक्षण यह दिया है- "प्रथमै जो उपमेह वो पुनि उपमान जु होइ । बस्तु और कौ म जु यह, रसनोम है सोइ ॥" मतिराम कहते हैं- "जहाँ प्रथम उपमेह सो, होत जात उपमान । तहाँ कहत रसनोपमा, कबि 'मतिराँम' सुजॉन ॥" और पद्माकर भी- "रसनोपमाँ उपमेइ जहँ, होत जात उग्मान ॥" परंतु इसके जो भी उदाहरण विभिन्न ग्रंथकारों ने दिये हैं, उनमें सेठ कन्हैयालाल पोद्दार रसनोपमा न मान 'वाच्योपमा' को मानते हैं, क्योंकि इनके वाच्थार्थ में ही उपमा है, इति । रसनोपमा को दासजी ने-ही उपमा-प्रपंच से पृथक् कर (इसका) वर्णन किया है, क्योंकि आपने इसमें दीपक-यथासंख्यादि जैसा कहने से-वर्य-वस्तु को वर्णन करने के ढंग से, साथ-ही इस पर एकावली-अलंकार का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर उसे इन्हीं की श्रेणी में रख अपनी विशेष काव्य-गत-अलंकार प्रतिभा का परिचय दिया है। संस्कृतादि ग्रयों में रसनोपमा का उल्लेख, उपमा के साथ-साथ अभिन्न रूप में ( अर्थात् , प्रथक नहीं) किया है । लुप्तोपमात्रों के वर्णन के बाद जहाँ "बिंब- प्रतिबिंबोपमा-यादि का कथन किया है, वहाँ इसको भो स्थान दिया है। जैसे- (१) पूर्णोपमा, (२) लुप्तोपमा, (३) मालोपमा, (४) लक्ष्योपमा, (५) रसनोपमा, (६) समुच्चयोपमा। श्रथवा-त्रिंबप्रतिबिंबोपमा, वस्तु-प्रतिवस्तु-निर्दिष्टोपमा, श्लेपोपमा, वैधम्योपमा, नियमोपमा, समुच्चयोपमा, रसनोपमा प्रादि-आदि।" रसनोपमा का अर्थ- रसना+ उपमा, रसना - कंधनी, कमर पेटी, भूख- लादि और उपमा का अर्थ समता...। अर्थात् जब कई उपमाएँ एक शृखला-बद्ध रूप में कहीं जॉय और प्रथम का उपमेय दूसरे में क्रमशः उपमान होता जाय तब रसनोपमा का विषय बनता है, अस्तु प्रथम उपमा में जिस उपमेय का अन्य से