२१ काव्य-निर्णय (इस कवित्त में भी--माज को पीना, कुल धर्म को पचाना, व्यथा-बंधन को संचित करना तथा गोपाल में हुइना, इन सब में मुख्यार्थ-द्वारा प्रसंगति है, पर रूति के द्वारा संसार में ये अर्थ होते हैं। ) वि०-"मनोजमंजरी (अजानकवि) और काव्य-प्रभाकर (जगन्नाथ प्रसाद भानु) में यह कवित्त 'ऊढा' नायिका के वर्णन में दिया गया है। अढा नायिका का लक्षण कवि-कविदों-रीति-शास्त्रकारों ने इस प्रकार दिया है- "जो व्याही तिय और की, कर और सों प्रीति । 'उदा' तासों कहत हैं, राखि हिऐं रस-रीति ॥" और इसका उदाहरण कविवर 'बेनी' पूरा नाम-वेनी प्रवीण, (र०सं० १८७८ वि० ) ने बड़ा सुंदर रचा है, यथा- "सूखी-सी, समी-सी, भ्रमी ब्याकुल-सी बैठी कहूँ, नजर लगी है, बिन तोर - तोर नाख्यौ मैं । 'बेनी कवि' भोर ही ते भोरी भई डोलति हों, राज करो जाइ 2 काज अभिलाल्यो मैं॥ ललिकै हमारी जिय, बोले ना बिलोकै क्योंहूँ, मुख-मांखें मूदि रही यातें दीन भाल्यौ मैं। पलकें उधारों कैसे, कढ़ि जाइ भाँखिन ते, ___सोर ना करौरी, चित-चोर मूवि राख्यौ मैं ॥" अथ प्रयोजनवती लच्छना-लच्छन 'दोहा' जथा- प्रयोजनबती सु लच्छनौ', द्वै बिधि तासु बखॉन। एक 'सुद्ध' 'गोंनी दुतीय, भाखत सुमति सुजॉन ॥. वि०-"प्रयोजनवती लक्षणा उसे कहते हैं, 'जहाँ किसी विशेष प्रयोजन के लिए लाक्षणिक शब्द का प्रयोग किया जाय । अथवा- 'जहाँ किसी प्रयोजन के कारण शब्द के मुख्यार्थ में बाधा पड़े, वहाँ यह लक्षणा होती है और इसके 'गौणी' (गौनी-गॅमनी) तथा शुद्धा (सुद्धा) दो भेद होते हैं।" ____पा०-१. (भा० जी० ) लच्छ अप्रयोजनवती । (प्र०-२) लच्छिनऽप्रयोजनवती,... (३०) प्रयोजनवती जु लच्छना,...। (का० प्र०)) प्रयोजनवति हू लच्छना,...। (प्र.) (१०) प्रमान । ३. (भा० जी०) (प्र०-२) गमनी...। ४. (प्र०) सुकवि...।
- का० प्र० (भानु) पृ०७३ ।