पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६८

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काव्य-निर्णय ५३३ अस्य उदाहरन जथा- . दीठि-डुलै न, कहुँ भई, मोहित' मोहन-माँहि । परम सुभगता निरखि सखि, धरॅम तजै को नाहि ॥ वि.-"दासजी कृत यह उदाहरण "प्रसाद-गुण-व्यंजक" सरल, सुबोध और मधुरता-युक्त अति सुंदर है।" प्रसाद गुण-संयुक्त रस के अास्वादन से मन खिल जाता है। अथ समता गुन लच्छन जथा-- प्राचीनन को रीति सों, भिन्न रीति ठहराइ । 'शैमता-गन' तासों' कहैं, पै दूषनन-बराइ॥ वि०-"प्राचीन कवियों की रोति से जहाँ दूषणों से दूर रहकर भिन्न रीति ठहरायी जाय वहाँ "समता-गुण" दासजो ने माना है।" ___ चंद्रालोककार 'समता गुण' वहाँ मानते हैं जहाँ एक-एक शब्द सजाये हुए अर्थ प्रकट करे, एक-दूसरे में ध्वन्यात्मक समानता पायो जाय तथा न्यून समास होने से क्लिष्ट भी न हो, यथा- "समताम्पसमासत्वं वर्णायैस्तुल्यताऽथवा ॥" किंतु, साहित्य-दर्पण कर्ता इसे 'गुण'-विशेष नहीं मानते । श्रापका कहना है कि “समता, केवल दोषाभाव रूप है, इसलिये इसे पृथक् गुण मानना स्तुत्य नहीं कहा जा सकता ? यथा - "श्लेषो विचित्रता मात्रमदोषः समता परम् ॥" अस्य उदाहरन जथा- मेरे हग-कुबलयन कों, होत निसा सानंद । सदाँ रहे ब्रज-देस पै, उदित साँवरौ-चंद ॥ पुनः जथा- उपमाँ छबीली के छबा-लों छटे बारन की, ढरकि कलिंद ते कलिंदो धार ठहरें। लाल-सेत-गुन-गुही मेंनी-बधे बुध-जैन, बरनत वाही कों त्रिबेनी सी लेहरें। पा०-१. (स०पु०प्र०) संगतिः । २. (का०) (वे. ) (प्र. ) ( स० ५० प्र०) ताको"। ३. (का०) (३०) (प्र०) की...। ४. (वे.) ढरकी...। ५. (३०) गहें...। ६. (का०) (प्र.) त्रिवेनी की-सी...। (३०)...कैसी।

  • का० प्र० (भा०) १०-१३४ ।