काव्य-निर्णय वि०-"जैसा पूर्व में कहा गया है-भाले स्वयं नहीं चलते, गागर जल के लिये स्वयं नहीं जाती, बाजे स्वयं नहीं बजते, गुलाल स्वयं नहीं उड़ता, पिचकारियाँ स्वयं नहीं चलती, अपितु क्रमशः किसी के चलाने, ले जाने, बजाने, उड़ाने और चलाने पर ही चलते, जाते, बजते, उड़ते और चलती हैं, क्योंकि ये जड़ पदार्थ हैं, कोई कर्ता होना चाहिये इत्यादि..." लच्छिन-लच्छना 'दोहा' जथा- निज लच्छिन औरें दिऐं, लच्छि लच्छना जोग। गंगा-तट-बासी' कहें, गंगा-बासी लोग ॥* पुनः उदाहरन दोहा' जथा- सुंदरि, दियौ बुझाइ के, सोबति सोंधि-मझार । (नत बासुरी काँन्ह की, कढ़ी तोरि के द्वार ॥ अस्य तिलक 'तोरिबौ किबार को संभवतु है, पै (यहाँ) 'द्वार' कयौ । बाँसुरी की धुनि सुनी, पै (यहाँ) बाँसुरी को कह्यौ ताते 'लच्छन-लच्छिनौ' कहिऐ। वि०-"जहां वाक्याथ की सिद्धि के लिये मुख्यार्थ को त्याग लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाय वहाँ 'लक्षण-लक्षणा' कही जाती है। उपादान लक्षणा 'अजह- स्थार्था' है, वह अपना मुख्यार्थ नहीं छोड़ती और यह लक्षण-लक्षणा 'जह- स्वार्थी' है जो अपना मुख्यार्थ छोड़ देती है। अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि में भी यह लक्षणा होती है। अस्तु, दासजी के उदाहरण तो संस्कृत-काव्यानुसार सुदर हैं ही, पर इस लक्षणा का 'विहारीलाल कृत निम्नलिखित दोहा-रचना अनुपम उदाहरण है, यथा- "कच-सँभेटि कर, भुज-उलट, खए सीस पट-टारि। का को मन बाँध नहीं, ये बूरो-बाँधन-हारि ॥" विहारी कृत यह दोहा किसी नायिका के जूरा (वेणी) बाँधते समय की चेष्टा -क्रिया का वर्णन है। बाँधै वा बाँधत शब्द का मुख्यार्थ है बांधना, पर मन कोई स्थूल वस्तु नहीं जिसे बाँधा जाय, अतएव मुख्यार्थ का यहाँ बाध है और मुख्यार्थ को सर्वथा त्याग कर 'मन' को बाँधना-आसक्त करना, यह लक्ष्यार्थ पा०-१. (का० प्र०) वासिन्ह "। २ (प्र.)(३०)(का० प्र०) दिया...।
- का० प्र० (भानु०) पृ०७४ 11 का०प्र० (भानु,) पृ०७४ ।