थे। भादि-प्राचार्य कृपाराम (१५९८ ई०) को 'हिततरंगिणी' या 'शृंगार सरंगिणी' से लेकर ब्रजभाषा के अंतिम रीति-काल के कवि नवनीत चतुर्वेदी मथुरा (१६१५ वि०) तक प्रजभाषा का इतना विशाल रीति-शास्त्र प्रणयन हो चुका था कि आज उसका लेखा-जोखा उपस्थित करना सहज नहीं है। इस रीति-रचना-उदधि के सारभूत ग्रंथ रत्न-"रसराज' (मतिराम त्रिपाठी-सं० १६७४ वि०), भाषा-भषण (यशवंतसिंह, जोधपुर के राजा सं० १६८३ वि०) और काव्यनिर्णय' (भिखारी दास, सं० १७६० वि०) कहे-सुने जाते हैं।" यह ग्रंथत्रयी ब्रजभाषा के सिद्ध ग्रंथ हैं, अतएव जिन्होंने भी मन लगाकर इन्हें किसी इनके ज्ञाता से समझ-बूझ लिया वह काव्य के विविध रस, रीति, अनि, व्यंजना,अलंकार, गुण, दोष भोर दोषों के परिहार-मादि अंग-उपांगोंमें निष्णात हो गया। वास्तव में इस प्रयत्रयी की निराली विशेषताएँ हैं, जिनके प्रति ब्रजभाषा के रससिक्त कविवर विहारीलाल के शब्दों में कहा जा सकता है :
"देखत में छोटे लगें, घाव करें गंभोर ।।४
अतएव इस रत्नत्रयी के कितने ही छोटे-मोटे संस्करण कितने ही स्थानों से प्रकाशित हुए, फिर भी इनके नये-संस्करणों की चाह बनी हुई है, इससे इसकी विशेष विशेषता के प्रति और क्या कहा जाय । अस्तु कलकत्ते में जब 'पोद्दार-मभि-नंदन प्रथ' के संपादन-भार से दबा जा रहा था, तब इसके प्रकाशन--संपादन की चर्चा चली और वह यदा-कदा के साथ आगे पल्लवित होती गई, परिणाम सामने हैं।
ग्रंथ-संपादन-विधि की भी एक छोटी-सी कहानी है। वह उतनी जीर्ण तो नहीं, जितनी कि उसे होना चाहिये, फिर भी पुरानी अवश्य है । संकुचित भी कही जा सकती है, क्योंकि अभी उसने संपन्न रूप धारण नहीं किया है । अतएव इस संपादन-विधि के दो गोत्र-“तदनुकूल अर्थात् ग्रंथ कीम्ब-भापा-लेखन-उच्चारण के अनुकूल तथा स्वानुकूल, अर्थात ग्रंथ-संपादक के देश, जाति-अनुकूल कहे जा, सकते हैं । तदनुएल (प्रथकार की भाषा के अनुकूज) संपादित ग्रंथ संस्कृत को छोड़कर अन्य भाषामों के हमारे देखने में अभी तक नहीं भाये, पर स्वानुकूल संगदित ग्रंथ अधिकता से यत्र-तत्र विखरे पड़े हैं। वे अपनी-अपनी भाषा की प्रणाली से-उसके सहज बोधव्य स्वभाव से इतनी दूर जा बसे हैं कि आज वे
१. २. ३. दे०-"हिंदी साहित्य का इतिहास" पं० रामचन्द्र शुक्ल, पृ० २५२, २४४,२७७, संशोधित और परिवधित संस्करण सं० २००३ वि० । ४. सतसैया के दोहरा, ज्यों नावक के तीर । देखत में छोटे लगें, पाब क गभीर ।।