पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६३७

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६०२ काव्य-निर्णय वि०-दासजी कृत इस धनुष-बद्ध छंद के पढ़ने का निम्न प्रकार है। धनुष, वाण और प्रत्यंचा (डोरी) रूप पाँच कोष्ठक हैं । उन में स्थित पाँच वर्ग- "ति, अ, अँ, नि, ग, हैं। अस्तु अंक एक के प्रारंभिक अक्षर 'ति' (एकवार ), श्र ( दो वार ) प्रथम, ति के साथ बाद में दोहे के तीसरे चरण के 'भु के साथ, अ (एकवार), 'नि' (दो वार, प्रथम, दोहे के प्रथम चरण रूप 'नि' बस्यौ में, दूसरे दोहे के अंतिम चरण 'नि'-रखनि में ) और 'ग' (एकवार) का प्रयोग हुश्रा है। अस्तु वाण के अंतिम अंग में लिखित 'ति' से प्रारंभ होकर उसकी (डोरी) स्थित 'अ' के साथ दक्षिणावर्ती रूप में घूमता हुआ धनुष की वाम प्रत्यंचा में बँधी ज्या के साथ आकर वाण के अंतस्थित 'ति' के साथ जुड़ने बाला 'अ' को फिर लेकर वाण के फल ( ऊपर ) की ओर घनुप के सहारे सीधा पढ़ा जायगा। "अर्थात् प्रथम बाण के निम्न भाग के दो अक्षर, दक्षिण भाग की श्राधी प्रत्यंचा ( डोरी), इसके बाद दक्षिण भाग से ही प्रारंभ धनुष का अर्ध- चंद्राकार पूर्ण भाग, फिर बाम भाग को आधी प्रत्यंचा (डोरी) और उसका मध्यवर्ती अक्षर पढ़ कर पुनः शर के फल तक पढ़ना चाहिये।" अथ हार-बंध चित्रालंकार जथा- सुनि-सुनि पॅनु हँनुमान किय, सिय-हिय' धुनि-धंनि मौनि । धरि करि हरि गति प्रीति अति, सुख रुख दुख दिय भाँनि ॥ अस्य उदाहरन वि०-"दासजी कृत यह हार-बद्ध छंद प्रत्येक तीन-तीन मणिकाओं के बाद एक-एक मणिकाओं के सहारे आगे हार रूप बढ़ता हुश्रा अंत में प्रथम तीन मणिका के मध्य की मणिका पर समाप्त होगा। अर्थात् अंक एक से क्रमशः पा०-१. (३०) जिय!