पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६४

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काव्य-निर्णय २९ हो रहा है, अतएव "अभिधा मूला शाब्दी व्यंजना" कही जायगी, अर्थात् 'रसाल' शब्द से नायक की कुशलता पूछना-व्यंजित होना 'अभिधामूलक व्यंग्य है। पं० जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ने काव्य-प्रभाकर में दासजी के इस दोहे को 'वचन-विदग्धा नायिका' के उदाहरण में उल्लेख किया है । वचन-विदग्धा "बचनन की रचनॉन सों, जो साधे निज काज । 'बचन विदगधा नायिका' ताहि कहत कविराज ॥" -पनाकर, अर्थ स्पष्ट है, अस्तु-वचनविदग्धा नायिका का वर्णन "संगम" कवि ने बड़ा सुंदर प्रस्तुत किया है । यथा- "तीर है न बोर कोऊ कर ना समीर धीर, बाल्यौ म-नीर अति रह्यौ नाँ उपाउ रे । पंखा है न पास, एक मास तेरे पावन की, सावन की रेंन मोहि मरत जियाउ रे॥ 'संगम' मैं खोलि राखी खिरकी तिहारे हेत, होति हों अचेत तन-सपत बुझाउ रे। जान-जात जॉन क्यों न कीजिऐ उताल गोंन, पोन मीत मेरे भोंन मंद-मंद भाउ रे॥" इसी भाव को कवि "राबराना" ने भी अपनाया है, जैसे- "पास परिचारिका न कोऊ जो करे बियारि, मैहैल - टैहैल मेरी कैहैल मिटाउ रे। 'राब' कहें बात न सुहाती तेऊ हाती करी, छाती ते छुभाइ अति भानद बदाउ रे॥ ऐरे मीत पोंन, तू परसि मेरौ भंग भाइ, तेरे इतै भाइवे को मेरे चित चाउरे। राखे बड़ी बरे ते किबार खोल तेरे काज, एरे मेरे मंदिर में मंद-मंद भाउ रे॥" इन माणिक-मोती रूप छंदों में किसे विशेषता दी जाय, यह सहृदय पाठकों के संवेद्य है।"