पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६६९

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६३४ काव्य-निर्णय पै ये अर्थ इन असुर-साखि भौर ससुर-साखि सबद ते भली-भांति प्रघट नाही होत, ताते असमरथ सब दोष है। वि०-"इस दोहे में तीन शन्द-सतिभाम या वाम, असुर-साखि और ससुर-साखि असमर्थ हैं। तीनों कवि-अभीष्ट अर्थ व्यक्त करने में प्रयुक्त है, क्योंकि इन तीनों के लक्ष्यार्थ-सतिभाम या वाम=सती स्त्री, असुर और ससुर-साखि-असुर (राक्षस) और ससुर (पति का पिता) तथा साखि = साक्षी, गवाही देने वाला, की और अधिक आकर्षित होता है, न कि-सत्यभामा (भगवान श्रीकृष्ण की पट्ट महिषी), असुर-साखि (कल्पतरु के बिना) और ससुर- साखि ( कल्पतरु से सुंदर बनाना ) की ओर नहीं जाता, इसलिये यहां उक्त दोष है ।" अथ निहितारथ सब्द-दोष लच्छन जथा--- दुर्थ -सबद में राखिए, अप्रसिद्ध हो चाहि । जाँनों जाइ प्रसिद्ध ही, 'निहितारथ' सो बाहि ॥ वि०-दो अर्थ वाले शब्द के द्वारा स्वकल्पित अप्रसिद्ध अर्थ का बोध कराने पर भी उसके प्रसिद्ध अर्थ का ही बोध होता हो, वहां 'निहितार्थ दोष माना गया है । निहितार्थ का तात्पर्य उस शब्द से है, जिसके दो अर्थों में एक प्रसिद्ध और एक अप्रसिद्ध हो तथा उसका अप्रसिद्ध-अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया हो !" अस्य उदाहरन- रे-रे सठ, नीरद भयौ, चपला बिधु चिवलाइ। "भव-मकरध्वज-तरन कों, नाहिंन और उपाइ॥". अस्य तिलक इहाँ नीरद = बिनों दांत को, चपना=बचमी, विविस्तू भी मकर- ब्रज समुद्र के लिऐं सब्द राखे, पै इनके मुख्यारथ-नीरव-बादर, चपला- बीजुरी, विधुचंद्रमा औ मकरवा = कामदेव अर्थ-ही जाने जाव है, ताते इहाँ 'निहितारथ'-सब्द दोष भयो। पा०-१. (३०) (प्र०) यर्थ...! (सं०पू०प्र०) हयर्थः। २. (प्र०) चितलाउ । ३. (प्र०) उपाउ।

  • काव्य-प्रभाकर (भा०) पृ०-६४० ।