काव्य-निर्णय अथ ब्याहृत दोष लच्छन-उदाहरन जथा- सत-असतो एकै कहें, 'ब्याहत' सुधि-बिसराइ । "चंद-मुखी" के बदन-रॉम- हिमकर कहथौ न जाइ ॥". अस्य तिलक इहाँ चंद-मुखी कहि के वाके बर्दैन (मुख) को 'हिमकर' (चंद्रमा) न कहिनों व्याहत दोष है। वि०-"व्याहृत का लक्षण है-"किसी वस्तु का प्रथम महत्व दिखलाकर फिर उसकी हीनता सूचित करना, अथवा प्रथम हीनता दिखलाकर पुनः उसका महत्व सूचित करना। सुधि-भूलकर सत्य-असत्य को एक रूप में कहना-जहाँ एक बात निर्धारित कर फिर उसके विरुद्ध कहना-श्रादि भी "व्यवहृत-दोष- लक्षण हैं । वदतोव्याघात वा परस्पर विरोध भी इसे कहते हैं । अस्तु, अाशय एक है, कहने के लक्षण-प्रकाश के ढंग अलग-अलग हैं।" अथ पुनरुक्त दोष-लच्छन-उदाहरन जथा- वहे अर्थ (नि-पुनि मिले, सबद और 'पुनरुक्त'। "मृदु-बाँनी, मीठी लग, बात कविन को उक्त ॥" अस्य तिलक इहाँ बाँनी, बात भी उक्त (उक्ति) को अर्थ एक ही है, अलग-अलग नाही, पै सब्द और-और हैं, ताते पुनरुक्त दोष है। अथ दुम दोष लच्छन-उदाहरन जथा- म-बिचार कँम कों कियौ 'दुःम है इहि काल "बरबाजी, के बारने, दै है रीमि दयान ॥" अस्य तिलक इहाँ - "बारन-ही के बाजि ही दै हैं." ऐसौ हौनों चहियतो। वि०-"दुष्क्रम का लक्षण है-अनुचित क्रम, लोक-शास्त्र-विरुद्ध क्रम । अर, इस उदाहरण में-'प्रथम घोड़ा और बाद में हाथी की यांचा 'यह दुष्क्रम है । अर्थात् प्रथम हाथी की-बड़ी वस्तु की, यांचा न कर थोड़े की-अल्प को-जो घोड़ा नहीं दे सकता उससे हाथी मांगना..."यांचा-दुष्क्रम है इत्यादि.."
- काव्य-प्रमाकर (भा०) ५०-६४६ ।