सिक कर दिया है और इस प्रकार हमें सर्वत्र "कौं, सौं, "," ही मिलते हैं। मूल पाठ को बनाए रखने के स्थान पर इस प्रकार उन्होंने अपने संस्करण में एक कृत्रिम समानता ला दी है, जो कदाचित सतसई के मूल रूप में वास्तव में विद्यमान न थी।"
स्व. रत्नाकर जी के संपादन-संबंध में कही गई यह टिप्पणी सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि उन्होंने 'विहारी-रत्नाकर' में ही नहीं, सूरसागर में भी शब्द, क्रिया और कारकों में कुछ ऐसी कतरब्योत की है, जिसे स्वानुकूल तो कह सकते हैं, भाषानुकूल-ग्रंथानुकूल नहीं। किंतु यहाँ आप ( वर्मा जी) ने अपने को और अपने अनुगामी पं० नंददुलारे लाल वाजपेयी (सागर) को भुला दिया है। आप लोगों ने भी अपने-अपने संपादित ब्रजभाषा-प्रथों-"अष्टछाप, ब्रजभाषा-व्याकरण, ब्रजभाषा, सूरसागर-सार, रामचरित मानस, सूरसागर और सूर- सुषुमा' में वही ऊपर कही गयी बात बड़ी विशदता में की है, जिसके लिये भाज रत्नाकर जी को बदनाम किया जा रहा है। उदाहरण के लिये पेरिस (फ्रांस) में डाक्टरेट के लिये दिया गण वह निबंध है, जो फेंच में-"ला लांग बज"और हिन्दी में 'ब्रजभाषा' नाम का है। हम यहाँ विषयांतर के कारण उक्त ग्रंथ की भूलें जो अदि से अंत तक प्रत्येक पंक्ति में भरी पड़ी हैं, दिखाना नहीं चाहते, अपितु भाप-द्वारा उल्लिखित केवल चौबे गनपत खिलंदर के बयान के लिखने की भूलें बतलाना चाहते हैं, जो अकारण उस (चौबे) के सिर थोपी गई हैं। प्रथम पंक्ति यथा :
"एक मथुरा जी चौबे हे जो डिल्ली (दिल्ली) सहर को चले। तो पैले रेल तो ही नई, पैदल रस्ता ही," इत्यादि...।
इस पंक्ति में 'जी' 'सहैर कौ' 'पैले' और 'पैदल' शब्द चौबे-जाति के अप्रयुक्त- उनकी बोल चाल की भाषा से विपरीत प्रयोग हैं। चौबे - जी के स्थान पर 'के', सहैर को के स्थान पर 'सैहैर कों' पैले के स्थान पैलें'और पैदल के स्थानपर 'पैदर' कहे-बोलेगा, वर्मा जी द्वारा मान्य नहीं। इस लतीफे में दिये गये दोनों बंद भी अपने से-चतुर्वेद जाति में निस्य प्रति कहने-सुनने से अलग जा पड़े हैं, एक यथा:
"भीजत है तब रीमत है, और धोय धरी सब के मनमानी। स्वाफी सफाकर, लौंग इलायची घोंट के त्यार करी रसधानी ॥ संकर पाय विसंबर ने जब ब्रम्म कमंडल के जल छानी। गंग से ऊँची तरंग उठे, तब हिर्दै में भाबत भंग भवानी॥"१. ब्रजभाषा, पृ० २७, ५६ वा प्रकरण ।