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नयों का रंगमंच नहीं-सा हो गया है। साहित्यिक सुरुचि पर सिनेमा में ऐसा धावा बोल दिया है कि कुरुचि को नेतृत्व करने का संपूर्ण अवसर मिल गया है। उन पर भी पारसी स्टेज की गहरी छाप है। हाँ, पारसी स्टेज के आरंभिक विनय-सूत्रों में एक यह भी था कि वे लोग प्राचीन इंग्लैंड के रंगमंचों की तरह स्त्रियों का सहयोग नहीं पसंद करते थे। १८वीं शताब्दी में धीरे-धीरे स्त्रियाँ रंगमंच पर इंग्लैंड में आई। किंतु सिनेमा ने स्त्रियों को, रंगमंच पर अबाध अधिकार दिया। बालकों को स्त्री-पात्र के अभिनय की अवांछनीय प्रणाली से छुटकारा मिला। किंतु रंगमंचों की असफलता का प्रधान कारण है स्त्रियों का उन में अभाव; विशेषतः हिंदी रंगमंच के लिए। बहुत से नाटक मंडलियों द्वारा इस लिए नहीं खेले जाते कि उन के पास स्त्री-पात्र नहीं हैं। रंगमंच की तो अकाल मृत्यु हिंदी में दिखाई पड़ रही है। कुछ मंडलियाँ कभी-कभी साल में एकाध बार, वार्षिकोत्सव मनाने के अवसर पर, कोई अभिनय कर लेती है। पुकार होती है आलोचकों की, हिंदी में नाटकों के अभाव की। रंगमंच नहीं है, ऐसा समझने का कोई साहस नहीं करता। क्योंकि दोष-दर्शन सहज है। उस के लिए वैसा प्रयत्न करना कठिन है जैसा कीन ने किया था। युग के पीछे हम चलने का स्वाँग भरते हैं, हिंदी में नाटकों का यथार्थवाद अभिनीत देखना चाहते हैं और यह नहीं देखते कि पश्चिम में अब भी प्राचीन नाटकों को फिर से सवाक्-