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संस्कृति। पुरुष सर्वधा निर्लिप्त और स्वतन्त्र है। प्रकृति या माया उसे प्रवृत्ति या आवरण में लाने की चेष्टा करती है; इसलिए आसक्ति का आरोपण स्त्री में ही है। नैव स्त्री न पुमानेव न चैवायम् नपुंसकः मानने पर भी व्यवहार में ब्रह्म पुरुष हैं, माया स्त्रीधर्मिणी। स्त्रीत्व में प्रवृत्ति के कारण नैसर्गिक आकर्षण मान कर उसे प्रार्थिनी बनाया गया है।

यदि हम भारतीय रुचि-भेद को लक्ष्य में न रख कर साहित्य की विवेचना करने लगेंगे, तो जहाँगीर की ही तरह प्रमाद कर बैठने की आशंका है। तो भी इस प्रसंग में यह बात न भूलनी चाहिए कि भारतीय संस्कृत वाङमय में समय-चक्र के प्रत्यावर्तनों के द्वारा इस रुचि-भेद में परिवर्तनों का आभास मिलता है। ऊपर की कही हुई सम्भावना या साहित्यिक सिद्धान्त मायावाद के प्रबलता प्राप्त करने के पीछे का भी हो सकता है; क्योंकि कालिदास ने रति का करुण विप्रलम्भ वर्णन करने के साथ ही साथ अज का भी विरह वर्णन किया है और मेघदूत तो विरही यक्ष की करुण भाव व्यंजना से परिपूर्ण एक प्रसिद्ध अमर कृति है।

इस प्रकार काल-चक्र के महान् प्रत्यावर्तनों से पूर्ण भारतीय वाङमय की सुरुचि-सम्बन्धी विचिन्नताओं के निदर्शन बहुत से मिलेंगे। उन्हें बिना देखे ही अत्यन्त शीघ्रता में आजकल अमुक वस्तु अभारतीय है अथवा भारतीय संस्कृति सुरुचि के विरुद्ध है, कह देने की परिपाटी चल पड़ी है। विज्ञ समालोचक भी हिन्दी