पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१२६

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यहाँ व्याहत वाच्यार्थ की चारुता सहृदयों को श्राह्लादित कर देती है। बहुत से ऐसे प्रयोग हिन्दी मे होते है जिनके अभिधेयार्थ का व्याघात नहीं प्रतीत होता पर तात्पर्य की दृष्टि से किसी न किसी प्रकार का अर्थ-व्याघात रहता है और लक्षणा वहां काम करती है । जैसे- १. सूरज माथे पर आ गया। २. आँख आँजने को भी घी नहीं। प्रातः-सायंकाल सूरज माथे पर नहीं रहता, अंगल-बगल रहता है। दोपहर को हो सिर पर श्राता है। अर्थात् सिर के ऊपर मालूम होता है। यहाँ लक्ष्यार्थं 'दोपहर हो गया', होता है। यहाँ सिर पर श्राने में हो अर्थबाध झलकता है । 'श्राख आंजने को भी घी नहीं' से यह मतलब है कि घी थोड़ा भी नहीं है । क्या यह कभी संभव है कि एक बूंद भी घी न हो; क्योंकि आंजने के लिए एक बूंद ही काफी है । इस कथन में ही अर्थवाध है। अतः प्रत्यक्ष में अभिधेयार्थ हो झलकता है; पर इनके अन्तर में लक्षणा है। कभी-कभी लाक्षणिक प्रयोगो के लक्ष्यार्थ के साथ अभिधेयार्थ भी मिला रहता है। जैसे, अब मैं सख हुई हूँ काँटा आँख ज्योति ने दिया जवाब । मुह में दांत न आंत पेट में हिलने को भी रही न ताव ॥ -गुरुभक्तसिह सूखकर काँटा होने में वाच्यार्थ लक्ष्यार्थ तक दौड़ लगाता है, पर मुंह में दाँत और पेट में प्रांत न होने से जर्जर बूढ़े का जो वाच्यार्थ होता है वह अपनी 'प्रबलता से लक्ष्याथं को दवाये बैठा है। ये प्रयोग अभिधेयार्थ और लक्ष्याथ दोनों 'मैं सार्थक हैं। किसी विषय में किसी अधिकारी को पक्षपात करते देखकर हम कहते हैं कि वे तो एक आँख से देखते हैं। हम इसका यही लक्ष्य अर्थ लेते हैं कि वे तरफदारी करते हैं, समान भाव से नहीं देखते। पर यही वाक्य एकाच अधिकारी को-काने को कहा जाय तो अभिधेयार्थ अपना अर्थ प्रकट करेगा ही और सुननेवाले इसका मजा लूटेगे हो । समझदारी ही इनका बिलगाव कर सकती है। एक वाक्य का और चमत्कार देखिये- कौड़ियों पर अशफियां लुट रही थीं। . सहसा पढ़नेवाला तो यही लक्ष्याथ ले बैठेगा कि साधारण वस्तुओं के लिए असाधारण खर्च किया जाता था। पर यहां अभिधा का हो अर्थ ठीक प्रतीत होता है। जुए में कौड़ियाँ फेंकी जाती थीं और हजारों की हार-जीत होती थी। फिर भी यहाँ लक्षणा किसी-न-किसी रूप में झांकी मारती ही है।