पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२००

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११२ काव्यदपंग चौबीसवीं छाया रस की अभिव्यक्ति सहृदयों के हृदयों मे वासना या चित्तवृत्ति या मनोविकार के स्वरूप से वर्तमान रति आदि स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी भावो के द्वारा व्यक्त होकर रस बन जाते हैं। इन तीनों को लोक व्यवहार में स्थायी भावों के कारण, कार्य और सहकारी कारण भी कहते हैं। ___ कह आये हैं कि रति आदि चित्तवृत्तियों के उत्पादक कारण विभाव दो प्रकार का होता है। एक तो वह है जिससे वे उत्पन्न होती हैं और दूसरा वह है जिससे वे उदीप्त होती हैं। पहले का नाम पालवन विभाव और दूसरे का नाम उद्दीपन विभाव है। चित्तवृत्तियों के उत्पन्न होने पर कुछ शारीरिक चेष्टाएँ उत्पन्न होतो हैं जो भाव-रूप में उनके कार्य हैं। इन्हें ही अनुभाव कहते हैं। रति आदि चित्त- वृत्तियों के साथ अन्यान्य चित्तवृत्तियां भी उत्पन्न होती हैं, जो उनकी सहायता करती हैं। पर ये रति आदि के समान स्थायी नहीं होती। संचरणमात्र करने से संचारी कहलाती है। "हिन्दी-रस-गंगाधर' के एक उद्धरण से यह स्पष्ट हो जायगा। "मान लीजिये कि शकुन्तला के विषय में दुष्यन्त को अन्तरात्मा में रति अर्थात् प्रेम हुश्रा । ऐसी दशा में रति का उत्पादन करनेवाली शकुन्तला हुई । अतः वह प्रेम का आलंबन कारण हुई । चांदनी चटक रहो थो, वनलताएँ कुसुमित हो रही थीं । अतः वे और वैसी हो अन्य वस्तुएँ उद्दीपन-कारण हुई। दुष्यन्त का प्रेम दृढ़ हो गया और शकुन्तला के प्राप्त न होने के कारण उनकी आंखों से लगे अश्रु गिरने । यह अश्रुपात उस प्रेम का कार्य हुश्रा। और इसी तरह उस प्रेम के साथ-साथ उसका सहकारी भाव चिन्ता उत्पन्न हुई। वह सोचने लगा कि मुझे उसकी प्राप्ति कैसे हो! इसी तरह शोक आदि में भी समझो। पूर्वोक्त सभी बातों को हम संसार में देखा करते हैं। अब पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार, संसार में रति आदि के शकुन्तला आदि बालवन कारण होते हैं, चांदनी आदि उद्दीपन कारण होते हैं, उनसे अश्रु पात आदि कार्य उत्पन्न होते हैं और चिन्ता आदि उनके सहकारी भाव होते हैं। वे ही जब जिस रस का वर्णन हो, उससे उचित एवं १ विर्भावनानुभावेन भ्यक्तः संचारिणा तथा । रसतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेताम् । साहित्यदर्पण २ कारणान्नथ कार्वाणि सहकारीणि बानि च । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः । विभावा अनुमावाश्चय कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । काव्यप्रकाश