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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२९०

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३०४ कान्यदर्पण क्रौंची-वियोग कातर क्रौंच की वेदना से कवि के चित्त में वेदना का संचार हुआ। इसी वेदना से उलित हृदय का उद्गार श्लोकरूप में प्रकट हुआ और उसने अन्त में महाकाव्य का आकार धारण कर लिया । इसी से रामायण करुण-रख- पूर्ण है और उसका परिपाक अन्त तक-सीता के अत्यन्त वियोग-पर्यन्त उसका निर्वाह किया गया है । सँसार में सुख कम और दुःख अधिक है। सुख सरसों शोक सुमेरू ।-पत जीवमात्र दुःख दूर करने को निरन्तर चेष्टा करता है। यह दुःख आनन्द में भी विद्यमान है । कवि आरसी की उक्ति है- प्रानन्द अचानक रो उठता, लगते ही कोई शर निर्म । एक अन्य कवि का यह कैसा मर्मोद्गार है- ............."अलौकिक आनन्देर भार, विधाता याहारे देय, तार बक्षे वेदना अपार । तार नित्य जागरण, अग्नि देवतार दान, ऊर्द्ध शिखा ज्वालि, चित्तै अहोरात्र वग्ध करे प्राण अर्थात् विधाता जिसपर अलौकिक आनन्द का भार लाद देता है उसके हृदय मैं अपार वेदना होती है । उसका जागरण स्वाभाविक हो जाता है । देवता का दान अग्नि-समान चित्त में शिखाएँ फैलाकर दिन-रात प्राण को जलाते रहता है । इसी से यह कहावत भी चरितार्थ होती है कि 'समझदार को मौत है।' अभिप्राय यह कि अनुभवी का आनन्द वेदना-विकल होता है । करुण में 'सहानुभूति' को मात्रा अधिक रहती है। यह अन्यान्य रसों में भी पाया जाता है। हसते को देखकर हँसना और भागते को देखकर भागना, सहानुभूति का ही एक रूप है । समान विचार या अनुभूति से यह उत्पन्न होती है। इससे सहानुभूति को समानुभूति कहना ही ठीक है। करुण में इसको विशेषता रहती है। क्योंकि समानुभूति सामाजिकता से उत्पन्न होती है। इसमें परोपकार, उदारता, स्वार्थहीनता आदि सद्गुणों का समावेश रहता है। मूल इसका श्रात्मौपम्य है। प्रिय व्यक्ति की करुण भावना को मन में लाकर उसका समरस होना शोक की समानुभूति है । शकुन्तला ने समानुभूति का भाव जड़-जंगम से भी रखा था। उनसे विदा होने के समय भाई-बहन से विदा होने का-सा भाव प्रकट किया था। यहाँ भावाभास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, यहाँ तो “उदारचरितानान्तु वसुधैव १ रामायणे हि करणो रसः स्वयं आदिकविना सत्रितः। शोकः श्लोकत्वमागतः इत्येवं बादिना । मिळू दश्च स एव सीतास्यन्त वियोगपर्यन्तमेव स्वप्रबन्धमुपन्यस्थता। भन्यालोक