पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९५

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३१२ काव्यदर्पण २७. संकीर्ण-जहाँ एक वाक्य का पद दूसरे वाक्य में चला जाय वहाँ यह दोष माना जाता है। धरो प्रेम से राम को पूजो प्रति दिन ध्यान । इसमें 'धरो' एक वाक्य में और 'ध्यान' दूसरे वाक्य में है। २८. गभित-एक वाक्य में यदि दूसरे वाक्य का प्रवेश हो तो वहां गर्भित दोष होता है। का कैसे अब दिवस ये 'हे प्रिये सोच तू' मैं छायी सारी दिशि धनघटा देख वर्षा ऋतू में “वर्षा ऋतु में सारी दिशाओं में घनघया को छायी हुई देखकर अब मैं कैसे दिन काहूँ" इस वाक्य के भीतर 'हे प्रिये सोच तू' यह दूसरा वाक्य श्रा बैठा, जिससे प्रतीति विच्छेद हो जाता है । यही दोष है। २६. प्रसिद्धित्याग -साहित्य-सम्प्रदाय के प्रसिद्ध प्रयोगों के विरुद्ध प्रयोग करना यह दोष है। (क) घंटों की अविरत गर्जन से किस वीणा की सुमधुर ध्वनि पर। (ख) मधुर थी बजती कटि किकनी चरण नूपुर के रव में रमे । घण्टों का या तो घोष होता है या घनघनाहट होती है। मेघ का गर्जन होता है। ऐसे ही नूपुर का शिजन, होता है रव नहीं। टिप्पणी-अप्रयुक्त दोष सर्वथा अप्रचलित शब्दों के प्रयोग में होता है और जहाँ प्रसिद्धि त्याग से चमत्कार का अभाव हो जाता है वहां यह दोष होता है। . ३०. भग्नप्रक्रम-जहाँ प्रारम्भ किये गये प्रक्रम (प्रस्ताव ) का अन्त तक निर्वाह नहीं किया जाय, अर्थात् पहले का ढंग टूट जाय वहाँ यह दोष होता है। सचिव वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस । राज, धर्म, तनु तीन कर होहिं वेग ही नास । यहां मंत्री, वैद्य और गुरु के क्रम से राज, तनु, धर्म कहना चाहिये पर ऐसा नहीं है। प्रियवादी वैद्य से धर्म का नाश कैसे होगा, यह संदेह दोषावह हो जाता है। टिप्पणी-यह दोष सर्वनाम, प्रत्यय, पर्याय, वचन, कारक, क्रिया, कर्म आदि में भी होता है। ३१. अक्रम-जहां क्रम विद्यमान न हो अर्थात् जिन पद् के बाद जो पद रखना उचित हो उसका न रखना अक्रम दोष है। जो कुछ हो मैं न सम्हालूगा इस मधुर भार को जीवन के । महाँ जीवन के मधुर भार को न लिखने से क्रम-भंग स्पष्ट है। यद्यपि अन्वय- ..काल में यह दोष मिट जाता है पर मुख्यार्थ-इति तो है हो।