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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४१०

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३२८ काव्यदर्पण हृदय की एक साधारण, पर सुन्दर अवस्था भी होती है जिसमें न तो माधुर्य रहता है न श्रोज ही। फिर भी, उसमें सब कुछ रहता है । इस अवस्था को 'प्रसाद' के नाम से पुकारते है । भिन्न-भिन्न रसों के भिन्न-भिन्न गुण होते हुए भी प्रसाद सबके लिए उपयुक्त है। प्रसाद का अर्थ होता है, प्रशस्तता। अतएव जहाँ शब्द सुनने मात्र से अर्थबोध सम्भव हो, वहीं इसकी सत्ता मानी जाती है। फलतः शेष तीन रस अद्भुत, हास्य, भक्ति, वात्सल्य और भयानक तो इसके क्षेत्र है ही, साथ ही पूर्व कथित अन्य रस भी इसके आधार हो सकते हैं। कितनों ने अद्भुत आदि में यथासंभव उन्हीं दो गुणों को मान लिया है, किन्तु प्रसाद गुण अपनी सरलता के कारण सब रसों के लिए समान उपादेय है। कालिदास की रचनाएँ प्रायः इसौ गुण पर अवलम्बित हैं। धुले-उजले कपड़े में रंग-जैसा यह गुण मन को बरबस खींच लेता है-अत्यंत प्रभावित करता है । इसमें समास का अभाव होता है और साधारणतः सुकुमार वर्ण प्रयुक्त किये जाते हैं। यद्यपि गुणों को रस-धर्म बताकर शब्द-अर्थ से साक्षात् सम्बन्ध का निराकरण सिद्ध किया गया है; किन्तु वर्णों को कोमलता तथा कर्कशता उसके कारण होते हैं। अतएव यह निश्चित है कि रसोचित वर्णविन्यास गुण के मूल है। जैसे मनुष्य-जीवन में गुण समय के फेर से अक्सर दोष हो जाते हैं वैसे काव्य में भी इनकी स्थिरता नियत नहीं रहती है । मैदान में उतरे हुए योद्धा के व्यवहार में निष्ठुरता गुण है; किन्तु वही पत्नी के ग्रामोद-प्रमोद में दोष हो जा सकता है। कर्णकटु अक्षरों का निवेश वीर श्रादि रस में उपयुक्त होने के कारण गुण है शृङ्गार में दोष । लेकिन यह अनिश्चय की स्थिति में भी दोष-मात्र के लिए नहीं, विशेष-विशेष दोष पर अवलंबित है। कुछ दोष खदा, सब अवस्थाओं में, दोष रहेंगे। उनमें विपर्यय वांछनीय नहीं । व्याकरण की अशुद्धि किसी भी हालत में क्षम्य नहीं हो सकती । 'श्र तिकटु' दोष शृङ्गार रस की ध्वनि में सर्वथा हेय होते हुए भी अन्य रस में, विशेष परिस्थिति में दोष नहीं भी माना जा सकता है, गुण भी बन जा सकता है । जहाँ माधुर्य और श्रोज बँटे हुए क्षेत्रों में ही गुण हो सकते हैं, हेर-फेर होने पर वे दोष में परिणत हो जायेंगे, वहां प्रसाद सर्वत्र समान आदर पायेगा। दोष ऐसी वस्तु है जो आत्मा और शरीर दोनों में रह सकता है। किसी व्यक्ति में मूर्खता और कुबड़ापन दोनों ही हो सकते हैं। किन्तु गुण प्रत्येक स्थिति में श्रामा में ही होंगे। पंडिताई या उदारता किसी प्रकार हाथ-पांव में सम्भव नहीं। अलंकार और गुण में भी इसी विषय को लेकर भेद है । अलंकार शरीर पर-शब्द और अर्थ पर रहने की वस्तु है और गुण ऐसे नहीं । वे श्रात्मा से रस से- सम्बन्ध रखते हैं। ध्वनित रस, भाव आदि में गुणों का औचित्य और अनौचित्य का समझना नितान्त आवश्यक है। अन्यथा अलौकिक आनन्द का आस्वाद सम्भव