दसवाँ प्रकाश रीति पहली छाया रीति की रूप-रेखा 'रीति' शब्द 'रोग' धातु से 'क्ति' प्रत्यय करने से बना है, जिसका अर्थ है- गति, पद्धति, प्रणालो, मार्ग' आदि । रोति की परम्परा बहुत पुरानी है। भामह से भी पहले को। दंडी रोति के समर्थक थे; पर अलंकार के प्रभाव से मुक्त न थे। वामन ही प्रधानता रीति के समर्थक वा उन्नायक थे। उन्होंने विशिष्ट पद-रचना को-विशेष प्रकार से काव्य में पद-स्थापन को 'रोति' संज्ञा दी । रचना को विशेषता क्या है, इसका उत्तर उन्होने दिया कि गुण हो उनको विशेषता है। दण्डी ने कहा भी है कि उक्त दस गुण वैदर्भी रीति से प्राण हैं। विश्वनाथ का कहना है कि पदों के मेल वा संगठन को रौति कहते हैं। वह अंगरस्थान की भांति है। अर्थात् शरीर में जैसे अंगों का सुगठन होता है वैसे काव्य-शरीर में शब्दों और अर्थों का भी संगठन होता है। यह काव्यात्मभूत रस, भाव आदि की उपकारक होती है । कहने का अभिप्राय यह कि जैसे नर-नारी को शरीर-रचना से सुकुमारता, मधुरता, कठिनता, रुक्षता आदि गुणों का ज्ञान होता है और उससे नर-नारी को विशेषता का बोध होता है वैसे ही काव्य-रचना को विशेषता माधुर्यं आदि के द्वारा लक्षित होती है । रीति का काव्य शरीर से ही नहीं, बल्कि काव्य से निकट सम्बन्ध समझना चाहिये । शब्दार्थ-शरीर काव्य के आत्मभूत रसादि का उपकार करने-प्रभाव बढ़ाने वाली पदों की जो विशिष्ट रचना है उसे रीति कहते हैं। १ अस्त्यनको गिरा मार्गः सूक्ष्मभेदः परस्परम् । काव्यादर्श २ विशिष्ट पदरचना रीतिः । काव्यालंकार सूत्र ३ विशेषो गुणात्मा । काव्यालंकार सूत्र ४ एते बैदर्भमार्गस्थ प्राणाः दश गुणाः स्मृताः ॥ काव्यादर्श ५ पदसंघटना रीतिरजसंस्था-विशेषवत् । उपकौ रसादीनाम् । सा दर्पण