पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४४५

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श्रव्यदपण ____ इसमें लपट-झट में 'ट' की, नद-नदी में 'द' को, मृग-मीन में 'म' की और दृग-दीन में 'द' की एक-एक बार आवृत्ति है . . मुक्ति मुकता को मोल माल ही कहां हैं जब- - - मोहन लला पै मन मानिक ही बार चुकी।-रतनाकर इसमें मुक्ति और मुकता में 'म' और 'क' की, मोल और माला में 'म' और 'ल' को और मन-मानिक में 'म' और 'न' को, समता है। इसमें यदि देखा जाय तो 'म' को कई बार श्रावृत्ति है, पर छेकानुप्रास ही है । क्योंकि, एक तो एक संग दो-दो वर्णों को समता है और दूसरे पृथक्-पृथक् शब्दों को लेकर समता है। इससे अनेक बार की प्रवृत्ति को शका मिथ्या है। कुन्द इन्दु सम देह उमा रमण करुणा अयन । जाहि दीन पर नेह करहु कृपा मर्दन मयन ।-तुलसी यहाँ कुन्द-इन्दु में 'न्द' को, रमण-करुण में '२२ 'ण' की और करहु कृपा में 'क' को, मर्दन मयन में 'म' 'न' को एक बार समानता है। (२) जहाँ वृत्तिगत अनेक वर्गों की अनेक बार समता हो वहाँ वृत्यानुप्रास होता है। भिन्न-भिन्न रसो के वर्णन में भिन्न-भिन्न वर्गों की रचना को वृत्ति कहते हैं। वृत्तियां तीन प्रकार की होती हैं- उपनागरिक, परुषा और कोमला। १. माधुर्यगुण व्यंजक, ट ठ ड ढ को छोड़कर वर्णों को तथा सानुस्वार वर्णों की रचना को उपनागरिका वृत्ति कहते हैं। यह वृत्ति शृङ्गार, हास्य और करुण रस में प्रयुक्त होती है। (क) तरणि के ही संग तरल तरंग से तरणि डूबी थी हमारी ताल में।-पंत (ख) रघुनंद आनंद कंद कोशल- चन्द दशरथ नन्दनं ।-तुलसी (ग) रस सिंगार मज्जन किये कंजन भंजन दैन । अजनु रंजनुहू बिना खंजन भंजन नैन ।-बिहारी २. रोजगुण व्यंजक वर्षों की रचना को परुषा वृत्ति कहते हैं। इसमें ट, ठ, द, दिख वर्ण तथा संयुक्त वणों की अधिकता रहती है । इसका प्रयोग वोर, रौद्र और भयानक रसी में होता है। विकला पड़ता क्क्ष फोड़कर वीर हृदय था। ' पर करतल छोड़ आज उड़ता साहय था।