पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५३

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नाटक और काव्य दोनों का जीवन रस ही है।' इस विषय में आचार्यों का मतभेद है कि दोनों का रस एक ही है वा काव्य की अपेक्षा नाटक का रस श्रेष्ठ है वा नाटक की अपेक्षा काव्य का। अभिनवगुन लिखते है कि “समग्ररूप नाट्य से रस-समूह की उत्पत्ति होती है, या नाट्य हो रस है वा रस ही नाट्य है। रस-समूह वेवल नाट्य हो मे नहीं, काव्य मे भी होता है। काव्यार्थ के विषय में भी प्रत्यक्ष के समान ज्ञानोदय होने से रसोदय होता है । काव्य नाटक ही है।०२ ये काव्य को दशरूपात्मक ही मानते है। इनके मत से दोनों एक हैं और दोनों का रस एक ही है। काव्य दशरूपात्मक ही होता है, यह मत मान्य नहीं हो सकता। यद्यपि नाटक में नृत्य, गीत आदि के मिश्रण से नाट्य रस का आस्वादन सहज प्रतीत होता है; किन्तु काव्य-रस को ही प्रधानता है। क्योंकि कवि काव्य में अव्यक्त को भी व्यक्त करता है, अदर्शनीय तथा अननुमेय को भी दर्शनीय तथा अनुमेय बनाता है और हृदयोद्वेलित भावों की अभिव्यक्ति में समर्थ होता है । ये बाते नाटक में संभव नहीं, उद्यपि इनमे से कुछ को पूर्ति सिनेमा-संमार ने कर दी है । एक बात और-सहृदय पाठकों का चित्त काव्यपाठ काल में जैसा अन्तमुखी होकर उसकी कल्पना, व्यञ्जना तथा रस में लीन होता है वैसा नाटक देखने में नहीं। इस दशा में नाटक के रस को अपेक्षा काव्य का रसास्वादन ही गंभीर होता है । इसीसे भोजराज- कहते हैं कि अभिनेताओं को अपेक्षा कवि ही सम्माननीय है और अभिनयसमूहों- नाटकों की अपेक्षा काव्य समादरणीय है । ____काव्यों में जैसे बुद्धितत्व, कल्पनातत्त्व, भावतत्त्व और काव्यांगतत्त्व माने गये हैं वैसे हो नाटक के पांच तत्त्व माने गये हैं, जिन्हें नाटकीय रेखा (Dramatic line कहते हैं। वे हैं-१. संघर्ष का सत्रपात (Introduction, initial incident), २. संघर्ष की वृद्धि ( Rising action or growth of action or complication ), ३. सघर्ष की चरम सीमा (Climax, crisis, or turning point), ४. संघर्ष का ह्रास वा प्रबल शक्ति का जयघोष (Falling action, or resolution or denouncement), ५. संघर्ष का अवसान वा उपसंहार (Conclu sion or catastrophe)। ये हमारे कथावस्तु के श्रारम्भ, यत्न, प्रत्याशा, नियताप्ति और फलागम नामक पांचों अंग ही हैं। १. रमादयो हि योरपि तयोर्गेवभूताः । ध्वन्यालोक २. नाट्यशास्त्र । ६३६ पृ० २६१-५ भाभिततभ्यः कवीन् एव बहु मम्यामहे, अभिनयेभ्यः काकोरविवारमार