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काव्य मे रहस्यवाद


कहा। इस युक्ति से एक बड़ी भारी मजहबी रुकावट दूर हुई। इधर कविता प्रकृति के क्षेत्र से नाना रूप-रंग और मूर्त्त पदार्थ लिए विना एक क़दम आगे बढ़ने को तैयार नहीं। उधर मजहब काग़जी आँखें निकाले काले अक्षरो से घूर रहा था कि ‘खबरदार! स्थूल इन्द्रियार्थों के प्रलोभन में न पड़ना। मूर्त्त पूजा का पाप मन मे न लाना।’ ब्लेक को कल्पना मे वस्तुओ का सूक्ष्म रूप (यहाँ के पुराने लोगो के ‘लिंग-शरीर’ के समान) मिल गया। स्थूलता के दोप का परिहार हो गया। मन भी छठी इन्द्रिय है, यह भावना स्पष्ट न होने से इन्द्रियासक्ति (Sensualism) के दोपारोपण की संभावना भी दूर हुईं समझी गई। भक्त कवियों, को नाना मनोहर रूपो के प्रति अनुराग प्रकट करने का लाइसेस मिल गया। पूछताछ होने पर वे कह सकते थे कि ‘वाह! हम तो छाया के प्रेम द्वारा सारसत्ता का प्रेम प्रकट कर रहे हैं।’ एक हिसाब से बड़ा भारी काम हुआ। पर खुदा का कौनसा ऐसा काम है जिसमे शैतान न कूदे? कल्पना मे ईश्वरीय सार-सत्ता के समान ही शैतानी सार-सत्ता का आना जाना भी रहता ही है। अपने सूक्ष्म-रूप के कारण दोनो नित्य ही होगी।

यह सब जाने दीजिए। यह देखिए कि कल्पना की नित्यता के प्रतिपादन मे, उसे पारमार्थिक सत्ता बनाने में, प्रकृति और कल्पना के प्रत्यक्ष सम्बन्ध में कितना विपर्य्यय करना पड़ा है। यह तो प्रत्यक्ष बात है कि कल्पना के भीतर जो कुछ रहता है या आता है वह प्रकृति के ही विशाल क्षेत्र से प्राप्त होता है। अतः