है। राम और कृष्ण की व्यक्त और प्रत्यक्ष कला को ले कर ही
भारतीय भक्तिकाव्य अब तक चला आ रहा है; ब्रह्म की अव्यक्त
या परोक्ष सत्ता को ले कर नहीं।
इस सम्बन्ध में यह भी ध्यान देने की बात है कि भक्तिक्षेत्र में राम या कृष्ण की प्रतिष्ठा रहस्य बतानेवाले 'सद्गुरु' या स्वर्ग का सँदेसा लानेवाले पैगंबर के रूप में नहीं है; लोक के भीतर अपनी शक्तिमयी, शीलमयी और सौन्य्यमयी कला का प्रकाश करनेवाले के रूप में है। इसी लोकरक्षक और लोकरंजक रूप पर भारतीय भक्त मुग्ध होते आए हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी से जब किसी ने पूछा कि "आप कृष्णा की उपासना क्यों नही करते जो सोलह कला के अवतार हैं; राम की उपासना क्यों करते हैं जो बारह ही कला के अवतार हैं?" तब उन्होने बड़े भोलेपन के साथ कहा कि "हमारे राम अवतार भी हैं, यह हमें आज मालूम हुआ।" इस उत्तर द्वारा गोस्वामीजी ने भारतीय भक्ति का स्वरूप अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि यहाँ भक्तिकाव्य के क्षेत्र में
भी अभिव्यक्ति-वाद ही रहा, रहस्यवाद, प्रतिबिंबवाद आदि
नहीं। जो तुलसी, सूर आदि भारतीय पद्धति के भक्तों में भी
रहस्यवाद सूँघा करते हैं उन्हे रहस्यवाद के स्वरूप का अध्ययन
करना चाहिए, उसके इतिहास को देखना चाहिए। व्यक्ताव्यक्त,
मूर्त्तामूर्त -- ब्रह्म के इन दो रूपों या पक्षो में से भारतीय भक्ति-
रस के भीतर व्यक्त और मूर्त्त पक्ष ही, जिसका हृदय के साथ