सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
काव्य में रहस्यवाद

जिस अनुभूति की प्रेरणा से सच्चे कवि रचना करने बैठते हैं, वह भी काव्यानुभूति ही होती है । सत्काव्य और असत्काव्य में- काव्य और काव्याभास मे-यही भीतरी या मार्मिक अन्तर होता है कि सच्चा काव्य सामान्यभूमि पर पहुंची हुई अनुभूतियों का वर्णन करता है और काव्याभास ऐसे सच्चे वर्णनों की केवल नकल करता है । न-जाने कितने भॉट-कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की खुशामद मे अपनी समझ मे वीर और रौद्ररस लबा- लव भर कर बड़ी-बड़ी पोथियाँ तैयार की, पर उनको लोक ने न अपनाया। वे यातो नष्ट हो गई या उन राजाओ के वंशधरों के घरो में वेठनो मे लपेटी पड़ी हैं। वे पोथियाँ सच्ची काव्यानुभूति की प्रेरणा से नहीं लिखी गई थीं। उनके नायको की वीरमूर्ति या रौद्र-मूर्ति रामकृष्ण की, शिवा-प्रताप की, वीर-रौद्र-मूर्ति कैसे हो सकती थी ? उनके उत्साह और उनके क्रोध को लोक अपना उत्साह और अपना क्रोध कैसे बना सकता था ?

अभिव्यक्ति केवल और निर्विशेप नहीं हो सकती। ब्रह्म अपनी व्यक्त सत्ता के भीतर अपने 'सत्' और 'आनन्द' स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए असत और क्लेश का अवस्थान करता है-अपने मंगल रूप के प्रकाश के लिए अमंगल की छाया डालता है। मंगल-पक्ष में सौन्दर्य, हास-विकास, प्रफुल्लता, रक्षा और रंजन इत्यादि हैं; अमंगल-पक्ष में विरूपता, विलाप, क्लेश और ध्वंस इत्यादि हैं। इन दोनों पक्षो के द्वंद्व के बीच से ही मंगल की कला शक्ति के साथ फूटती दिखाई पड़ा करती है । अत्याचार,