पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७३
काव्य में रहस्यवाद


कविताएँ हिन्दी में लिखी जाती हैं उनमें से अधिकांश का 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' से कोई सम्बन्ध नहीं होता। उनमे से कुछ तो विलायती 'अभिव्यंजना-वाद' के आदेश पर रची हुई बंगला कविताओ की नकल पर, और कुछ अँगरेजी कविताओ के लाक्षणिक-चमत्कारपूर्ण वाक्य शब्द-प्रति शब्द उठाकर, जोड़ी, जाती हैं। इनके जोड़नेवाले यह नहीं जानते कि 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' शब्द काव्यवस्तु (Matter) का सूचक है, अतः जहाँ काव्यवस्तु मे कोई 'वाद' नहीं है, केवल व्यंजना-शैली के वैचित्र्य का अनुकरण है, वहाँ 'अभिव्यंजना-वाद' की नकल है। यह नकल -- जैसे और सब नकलें -- बँगला में शुरू हुई। अतः हिंदीवालों में कुछ बेचारे तो बंग-पदावली के अवतरण से ही सन्तुष्ट रहते हैं, और कुछ-जिन्हे अँगरेज़ी का भी थोडा- बहुत परिचय रहता है -- सीधे अँगरेज़ी से, जहाँ से बंगाली लेते हैं, लाक्षणिक पदावली उठाया करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओ मे उस अन्विति (Unity) का सर्वथा अभाव रहता है, जिसके बिना कला की कोई कृति खड़ी ही नहीं हो सकती। इधर-उधर से बटोरे वाक्यो का एक असंश्लिष्ट और असम्बद्ध ढेर-सा लगा दिखाई पड़ता है। बात यह है कि अपनी किसी अनुभूत भावना या तथ्य की व्यंजना के लिए अपने उद्भावित वाक्य ही एक मे समन्वित हो सकते हैं।

भिन्न-भिन्न देशों की प्रवृत्ति की पहचान यदि हम काव्य के भाव और विभाव दो पन करके करते हैं तो बड़ी सुगमता हो