तस्यालुरौ मणिकर्णिक्षायाश्चकार सोपान ततिर्न रेषाः। २ । वालुदेवा असत्तिवो नये गुरावतात्मजः । चक्रपुष्कर गौ तौ नौ गाँधारमची करत् । ३ । ॥ काशी ॥ मैं इम में काशी के तीन भाग का वर्णन करूगा यथा प्रथम भाग में पंचक्रोश का दमरे में गोसाइयों के काल का तीसरे कुछ अन्च स्फट वर्णन। मैं पंचकोशी का वर्णन ऐसा नहीं करना चाहता कि जिसे देख कर लोग पंचः जोशी को यात्रा करने चले जायं वरंच मैं भगवान कान के उम परम प्रबन्न फर फार रूपी शक्ति को दिखाता है जिस से धैर्यमानों का धैर्य और अज्ञा- नों का मोह बढ़ता है। प्राहा ! उस की क्या महिमा है और कैमी प्रचित्य शक्ति है ? अतएव मैं मुक्ता बांठ से कह सकता हूं कि ईश्वर भी काल का एका नामान्तर है क्योंकि इस संसार की उत्पत्ति प्रलय केवल इती पर अंट की है। जिस विजयी और विख्यात सिकन्दर ने संसार को जीता उस्को अस्थि कहां गड़ी हैं और जिस कालिदास की कविता संसार पढ़ता है वह किस काल से और दिम स्थान पर हुश्रा ? यह किस्ता प्रभाव है कि अब उस का खोज भी नहीं मिलता ? काल का अतएव यदि हम प्राचीनों से प्राचीन, नवीनों से नवीन, बलवानों से बन्नवान, उत्पत्ति पालन नाश कर्ता और सब तन्त्र खतन्त्रादि विशेषणों से विशिष्ट ईश्वर को काल ही का एक नामान्तर कहैं तो क्या दोष है। इम पंचक्रोशी के मार्ग और मन्दिर और सरोवरों में से दो मौ वा तीन सौ वर्ष से प्राचीन कोई चिन्ह नहीं है और इस बात का कोई निधायक नहीं कि पंचक्रोश का मार्ग यही है केवल एक कर्दमेश्वर का सन्दिर मात्र बहुत प्राचीन है और इस के दोनों को कान्ल का वा इन को पीछे के काल का क हैं तो अयोग्य न होगा। इस मन्दिर को असिरिता और कोई प्राथोन चिन्ह नहीं पर हां पद पद पर पुराने बौद्ध वा जैन मूर्तिखंड, पुराने जैन म- न्दिरों के शिखर, दासे, खंभे और चौरटें टूटी फूटी पड़ी हैं। क्यौं भाई हि न्दुओं ! काशो तो तुम्हारा तोयं न है ? और तुम्हारा वेद सत तो परम प्रा- चोन है ? ती अब क्यों नहीं कोई चिन्ह दिखाते जिस से नियब हो कि काशी के मुख्य देव विश्वेश्वर और बिंदुमाधव यहां पर थे और यह उन का चिन्ह
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