पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१०६

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अोर मोटर से चल रहे थे और दो मील से ज्यादा चले न थे जब वह खराब होगई । हमें इतना मालूम था कि जिस सड़क से हम दिन में गये थे वह इस मोटर वाली सड़क से पच्छिम है और कुछ दूर जाने पर शायद यह उसी में मिल जाय । क्योंकि आखिर स्टेशन और पास की जमीन का नकशा तो आँखों के सामने नाचता ही था। और अब समय था कुल डेढ़ घंटे। इतने ही में उस बाजार में पहुँचना था जहाँ सामान रखा था। फिर वहाँ से एक मील स्टेशन चलना था सामान लेकर । यदि दस बजे बाजार में पहुँच जाते तो अाशा थी कि पन्द्रह मिनट में वहाँ से स्टेशन पहुँच के ट्रेन पड़क लेते। जब मैंने साथियों से पूछा तो दो ने तो साफ हिम्मत हारी, हालांकि उन्हें भी छपरा पहुँचना जरूरी था। वे लोग वकील थे और कचहरी में उनका काम था। अब तो मैं और भी घबराया । मगर जब लक्ष्म बाबू से पूछा तो उनने कहा कि ज़रूर चलेंगे। फिर वश था ! मेरा कलेजा वाँसों उछल पड़ा। मैं तो अकेले भी चल पड़ने का निश्चय करी चुका था और अब लक्ष्मी बाबू ने भी साथ देने को कह दिया । इसके बाद तो उन दोनों सजनों को भी हिम्मत पाई और हम सबने मोटर महारानी को सलाम कर उत्तर का रास्ता पकड़ा। रास्ता अनजान था। तिसपर तुर्ग यह कि मिट्टी सफेद थी। रास्ते में जहाँ तहाँ कीचड़ और पानी भी था। हमने कमर में धोती लपेटी । जते हाय में लिये। मेरे एक हाथ में मेरा दण्ड भी था। फिर हमारी for मार्च' शुरू हुई । यदि दौड़ते नहीं, तो सनूची परेशानी के बाद भी ट्रेन पकड़ न पाते। इसजिये दौड़ते चलते थे। रास्ते में कहीं क्या है इसकी पर्वा हमें कहाँ थी १ सौंप बिच्छू का तो ख्याल ही जाता रहा । सिर्फ गते में समय समय पर पड़ने वाले कोरड़ों में आदमी की प्राइट लेने की शिका हमें इसलिये थी कि राते का पता पूछे कि टीक तो जा रहे है ? कहीं दूसरी योर बहक तो नहीं रहे हैं ? भाटापोखर अभी कितनी दूर है यह जानने की भी तीम उत्कंठा थी। मगर कोस्तों और गर्गावों में तमाम नसाय छाना