. (१५४ ): भी उसे आदर्श बनाये रखे, उसे विकृत होने न दे, जैसा कि ऊपर की घटनाओं से स्पष्ट होता है। फिर भी जन-साधारण के दिल में हजारों वर्षों से धर्म के सम्बन्ध में जो धारणा है वह बदल नहीं सकती। उसका बदलना करीब करीब गैर मुमकिन है। धर्म के नाम पर होने वाली खराबियों और बुराइयों को दूर करने के लिये कितने ही धर्म-सुधारक आये और चले गये । मगर वे ज्यों की त्यों पड़ी हैं। नहीं, नहीं, वह तो और भी बढ़ती गई हैं। सुधारकों ने सुधार के बदले एक और भी नया सम्प्रदाय पैदा कर दिया जो गुत्थियों को और ज्यादा उलझाने का ही काम करने लगा। गांधी जी के नाम पर तो एक ऐसा ही सम्प्रदाय पैदा हो चुका है जो दूसरों की बातें सुनने तक को वादार नहीं। असल में धर्म की तो खासियत ही है अन्धपरम्परा पैदा करना और उसे प्रश्रय देना। तर्क दलील की गुंजाइश वहाँ हुई नहीं। और अगर कोई यह बात न माने तो उसे मान लेना होगा कि जहाँ तर्क दलील और अक्ल की गुंजाइश हो वह यदि धर्म हो भी तो किसी खास व्यक्ति या कुछ चुने लोगों के ही लिए हो सकता है । ज्योंही उसे आपने सार्वजनिक रूप देने की कोशिश की कि अक्ल के लिये मनाही का सख्त आर्डर जारी हुआ और अन्धपरम्परा श्रा धुसी । धर्मों और धार्मिक आन्दोलनों के इतिहास से यह बात साफ- साफ जाहिर है। गांधी जी इस बात को न मान कर और राजनीति पर धम की छाप लगाकर यह बड़ी भारी भूल कर रहे हैं, जिसका नतीजा श्राने वाली पीढ़ियों को सूद के साथ भुगतना नहीं होगा। इस तरह हम देखते हैं कि ज्योंही किसी बात में धर्म का नाम पाया कि धर्म के नाम पर ही गुजर करने वाले और उसके सर्व जन-सम्मत ठेकेदार पंडित और मौलवी या घुसे । उस बात में टाँग अढ़ाने का मौका तो उन्हें तभी तक नहीं मिलता जब तक वे बातें शुद्ध राजनीतिक या आर्थिक हैं और उन पर धम मजहब की मुहर नहीं लगी है। जब तक ये लोग मजबूरन दूर रहते हैं और ताक में रहते हैं कि हमारे घुसने का मौका कब आयेगा । इसलिये धर्म का नाम लेते ही कूद पड़ते हैं। उन्हें इस बात
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