तक ही रुक जाते हैं। बहुतेरे तो लोअर और अपर तक ही इति श्री कर लेते हैं। प्रायः नब्बे फीसदी तो पढ़ने का नाम ही नहीं जानते हैं। एक बात यह भी है कि जो जवान और बूढ़े हो चुके हैं वह यों ही रह जायेंगे। उन्हें तो “काला अक्षर भैंस बराबर" है । तो फिर उनके लिये आपकी हिन्दी या हिन्दुस्तानी किस काम की १ वे लोग संस्कृति और साहित्य की रक्षा कर पायेंगे ? मगर वे चुप्प रहे। उत्तर देई न सके। विचारे देते भी क्या ? असल बात दूसरी ही है। जहाँ मैं या मेरे जैसे कुछ लोग हर बात को 'जनता' ( mass ) की नजर से देखते और सोचते हैं, न कि संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से। क्योंकि जनता को तो सबसे पहले रोटी, कपड़े, दवा आदि से मतलब है । हाँ, जब पेट भरेगा तो ये बातें सूझेगी मगर अभी तो उनका मौका ही नहीं है । तहाँ साधारण कांग्रेसवादी--फिर चाहे वह गान्धीवादी हों या तथाकथित क्रांतिकारी और वामपक्षी-सबसे पहले साहित्य और संस्कृति की ही ओर नजर दौड़ाते हैं। और याद रहे कि इन दोनों के पीछे धर्म छिपा हुआ है। खुल के आने की या उसे लाने की हिम्मत नहीं है । इसीलिये साहित्य और संस्कृति का ढकोसला खड़ा किया जाता है। असल में न सिर्फ वे लोग मध्यम वर्गीय हैं, किन्तु उनकी मनोवृत्ति भी वैसी ही है । इसलिये मध्यम वर्ग की ही नजर से हर बात को वे लोग स्वभावतः देखते और तौलते हैं। मध्यम वर्ग का पेट तो भरता ही है। कपड़ा और दवा-दारू भी अप्राप्य नहीं हैं। फिर उन्हें . साहित्य और संस्कृति न सूझे तो सूझे क्या खाक ? मगर वे यह नहीं सोचते कि साहित्य की अगर कोई जरूरत है तो जनसमूह के लिये ही । श्राम लोगों को जगाना और तैयार करना ही साहित्य का काम होना चाहिये, खासकर गुलाम देश में । बिना जगे और पूरी तरह तैयार हुए जन-साधारण अाजादी की लड़ाई में भाग क्र्य सकते हैं ? और अाजाद हो जाने पर भी उन्हें ही ऊपर उठाना और आगे ले चलना जरूरी है। नहीं तो दुनिया की घुड़दौड़ में हमारा मुल्क पीछे
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