कांग्रेस कभी संघर्ष न करेगी। तब घबराहट क्यों? बात ऊपर से ठीक दीखती है। मगर असलियत कुछ और ही है। कभी किसी ने देखा-सुना ही नहीं कि कांग्रेस जमींदार सभा को भी अपनी मातहती में रखे या अपका एक जमींदार-डिपार्टमेन्ट खोले। उसका यत्न तो केवल किसान-सभा को ही न होने देने तथा अपने मातहत रखने में है। मजदूर-सभा की भी स्वतंत्र सत्ता वह स्वीकार करती है और जमींदार-सभा की भी। पूँजीपतियों की सभा का तो कुछ कहना ही नहीं। बल्कि यों कहिये की पूँजीपतियों एवं जमींदारों की सभाएँ कांग्रेस की पर्वा भी नहीं करती है। वह अपना स्वतंत्र कार्य किये जाती हैं। इसीलिये कांग्रेस के वर्ग-सामञ्जस्य वाले सिद्धान्त से उनकी हानि नहीं होती, नहीं हो सकती। उनकी संस्थायें निरन्तर लड़ती जो रहती हैं। बस, सारी बला किसानों पर ही आती है, आने वाली है। क्योंकि उनकी स्वतंत्र संस्था रहने न पाये इसी के लिये कांग्रेसी नेता परीशान रहते हैं और इस तरह किसान-सभा को पनपने नहीं देते। तब किसानों के हित चौपट न हों तो होगा क्या? वे सभी वर्ग संस्थानों को समान रूप से पनपने न देते तो एक बात थी। मगर सो तो होता नहीं। ऐसी दशा में कांग्रेस के अधीन किसान-सभा का ढाँचा खड़ा करना निरी प्रवंचना है। दरअसल कांग्रेस में जमींदारों का प्रभुत्व ठहरा और वह इसी ढंग से किसानों को उठने देना नहीं चाहते। यह उनकी चाल है कि अनेक वर्गीय संस्था के अधीन किसानों की वर्ग संस्था को बनाने का ढोंग रचकर उन्हें सदा पंगु ही रखें। पहले तो किसान-सभा के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ते थे। मगर उससे कुछ होता जाता न देख अब, यह दूसरा प्रपंच खड़ा किया जा रहा है।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस में दूसरे वर्ग-जमींदार, पूँजीपति और मजदूर-नगण्य से हैं; फलतः वे अपनी अलग सभायें बनाकर भी कांग्रेस का कुछ बिगाड़ नहीं सकते जब तक किसान कांग्रेस के साथ हैं। हाँ, यदि किसान भी अलग हों तो भारी खतरा होगा और उनकी स्वतंत्र संस्था-किसान-सभा-बन जाने में इसकी पूरी संभावना है। किसानों ने