बाधक नहीं हैं। गत पन्द्रह साल के अनुभव से हम यह बात कहने को विवश हैं। पार्टियों की पहली कोशिश यही होती है कि किसान-सभा या मज़दूर-सभा उनका पुछल्ला बनें, उनका प्रभुत्व और उनकी छाप इन सभाओं पर लगे। यदि ऐसा हो गया, तो ये सभाएँ बनें; नहीं तो जहन्नुम में जायें। यदि कई पार्टियाँ हुईं-और हमारे देश में दुर्भाग्य से सोशलिस्टों, कम्यूनिस्टों, फारवर्ड ब्लाकिस्टों, क्रान्तिकारी सोशलिस्टों, बोल्शेविकों आदि की अलग-अलग पार्टियाँ हैं-तो किसान-सभा उनके आपसी महाभारत का अखाड़ा बन जाती है। उनकी आपसी खींच-तान से यह ठीक-ठीक पनप पाती नहीं, तगड़ी और जबर्दस्त बन पाती नहीं। हरेक पार्टी का अपना-अपना मन्तव्य होता है। वह भला होता है या बुरा, इससे हमें कोई मतलब नहीं। मगर वह परस्पर विरोधी तो होता ही है। यह बात चाहे ऊपर से देखने कहने के लिये न भी हो, फिर भी भीतर से होती ही है। यह ठोस सत्य है। यदि मन्तव्य का परस्पर विरोध न हो तो फिर कलह कैसी? फिर ये पार्टियाँ आपस में मिल जाती हैं क्यों नहीं? कम से कम लीडरी का विरोध तो रहता ही। हरेक पार्टी अपनी लीडरी चाहती है और यह और भी बुरी बात है। ऐसी दशा में बेचारी किसान-सभा इनके आपसी झगड़े का अखाड़ा क्यों बने, क्यों बनने दी जाय? और अगर किसी कल, बल, छल से एक पार्टी ने सभा में अपना बहुमत बनाना चाहा, तो ऐसा क्यों होने दिया जाय! इन्हें तो अपनी लीडरी का मर्ज है। किसान और उनकी सभा जायँ जहन्नुम में। किसानों और उनकी सभा का नाम यदि इनने कभी लिया है तो केवल अपनी लीडरी साधने के लिये। नाम चाहिये, काम जाय चूल्हे में। एकान्त में बैठकर ये पार्टी लीडर कोई बात तय करें, कोई मन्तव्य ठहरायें, और किसान-सभा में आकर उस पर उसे ही लादें यह बुरी बात है; असह्य चीज है। सभा में ही बैठकर वह मन्तव्य ठीक क्यों नहीं करते? शायद तब उनकी लीडरी न रहे। मगर किसान-सभा तो रहेगी और जबर्दस्त रहेगी। यदि ये पार्टी लीडर ईमानदार हों तो उन्हें यही करना चाहिये। नहीं तो सभा को बख्श देना चाहिये।wikt:
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