पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/४७

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कर ही शासन-सत्ता उनके हाथ से छीननी पड़ी। शेष देशों में वे. विफल . ही रहे । क्यों ?. कारण हमें ढूंढ़ना होगा और रूस के दृष्टान्त में वह मिलेगा। अन्य देशों में आजादी के युद्ध के समय किसानों ने राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास करके अपनी अलग तैयारी न की, अपना स्वतंत्र संगठन न किया। फलतः अन्त में धोखे में रहे, मुँह ताकते रह गये । विपरीत इसके रूस में लेनिन ने मजदूरों का स्वतंत्र संगठन किया और किसानों का भी । अमेरिका आदि से उसने यही सीखा था । वहीं इस -संगठन का अभाव होने से धोका हुआ था, अत: रूस में उसने इसी श्रभाव को मिटाया। यहाँ तक कि किसानों के संगठन में तब तक उसे सफलता न मिल सकने के कारण उमने वामपक्षी सोशल रेवोल्यूशनरी टल को जो किसान-सभावादी था, अपने साथ मिलाया और अक्टूबर की क्रांति के बाद अपनी सरकार बनाकर दस दल को भी उस सरकार में स्थान दिया। उसकी सफलता की यही कुंजी थी।

सोशल रेवोल्यूशनरी दल को साथ लेने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि बोल्शेविक और कम्युनिस्ट पार्टी किसानों की पार्टी नहीं थी, नहीं हो सकती है। जब लेनिन सफल किसान-सभा न बना सका तो आज के कम्युनिस्ट किस खेत की मूनी हैं ? हाँ, अधिकार मिलने पर भले ही बना सकते हैं, मगर उससे पहले नहीं, यह ध्रुव सत्य है ।

भारत में भी हमें वही करना है, हम वही करते हैं। किसानों का स्वतंत्र संगठन वही तैयारी है जो लेनिन ने की थी। यदि वह मोवियत के.नेताओं की प्रतिज्ञायो, प्रस्तावों और घोषणा यों पर विश्वात करके मान बैठता कि जारशाही के अन्त के बाद किसान-मजदूर-गज्य या किसान- मजदूर प्रजा-राज्य अवश्यमेव स्थापित हो जायगा, जैसा कि हमारे यहां भी कुछ तथाकथित किसान नेता कहते फिरते हैं, तो वह धोका खाता और पछता के मरता । राजनीति में किसी भी संस्था की और विशेषतः श्रानाटी के लिये लड़ने वाली राष्ट्रीय संस्था की महज प्रतिज्ञा, उसके प्रस्ताव या उसकी घोषणा एवं, उसके कुछ प्रगतिशील नेताओं के उदात्त विचारों तथा