जन पहले-पहले किसान सभा और किसान संगठन का खयाल हमारे और हमारे कुछ साथियों के दिमाग में आया तो वह धुंधला सा ही था। उसकी रूप-रेखा भी कुछ साफ नजर न आ रही थी। यह हमारा आकस्मिक प्रयास था, ऐसे अथाह समुद्र में जहाज चलाने का जिसमें न तो दिशात्रों का ज्ञान था और न किनारे का पता । पास में दिग्दर्शक यंत्र. (कुतुबनुमा) भी न था कि ठीक-ठीक जहाज को चलाते । इतने दिनों बाद याद भी नहीं आता कि किस प्रेरणा ने हमें उस ओर अग्रसर किया। बेशक, कुछ उद्देश्य लेकर तो हमने श्रीगणेश किया ही था। मगर वह था निरा गोल-मोल । फिर भी. उस ओर हमारी प्रेरणा एकाएक कैसे हुई यह एक पहेली ही है और रहेगी । ऐसा मालूम होता है कि अकस्मात् हम उस ओर बह गये! मगर जरा इस बात की सफाई कर लें तो अच्छा हो।
किसान सभा के स्थापन का पहला विचार सन् १६२७ ई० के अन्तिम दिनों में हुआ था। उस समय मैं कांग्रेस की स्थानीय नीति से, या यों कहिये कि बिहार के कुछ बड़े नेताओं के कारनामों से मल्लाया-सा था, जो उन्होंने सन् १६२६ ई. के कौंसिल चुनाव के सिलसिले में दिखलाये थे। इसीलिए तो स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन न कर लाला लाजपतराय और पं० मदनमोहन मालवीय की इन्डिपेन्डेन्ट पार्टी का ही समर्थक रहा । जो उम्मीदवार बिहार में थे उन्हें लाला जी तथा मालवीय जी के श्राशीर्वाद प्राप्त थे। साथ ही गांधीवादी भी मैं खांटी था। इसलिये कांग्रेस से एक प्रकार की विरक्ति के साथ ही गांधी. बाद में अनुरक्ति भी पूरी थी। यह भी नहीं कि मैं गांधीवादी ढंग की किसान-सभा बनाने का खयाल न रखता था। उस समय तो यह सवाल कतई था ही नहीं । जन किसान सभा की ही बात उससे पहले न थी. तो