पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१०

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بسم له الرحمن الرحيم

कुँवर उदयभान चरित॥

सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूं उस अपने बनानेवाळे के साम्हने जिस ने हम सबको बनाया और बातकी बातमें वह सब कर दिखाया जिसका भेद किसीने न पाया। आतियां जातियां जो सांसें हैं। उसके बिन ध्यान सब यह फांसें हैं॥ यह कलका पुतला जो अपने उस खिलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाईमें क्यों पड़े और कडुवा कसैला क्यों हो। उस फलकी मिठाई चक्खै जो बड़ोंसे बड़े अगलोंने चक्खी है। देखनेको आखें दी और सुन्नेको यह कान दिये नाक भी ऊंची सबमें करदी मूरतोंको जी दान दिये मिट्टीके वासनको इतनी सकत कहां जो अपने कुन्हारके करतब कछ बतासके। सच है जो बनाया हुवा हो सो अपने बनानेवालेको क्या सराहे और क्या कहे यों जिसका जी चाहे पड़ा बके। सिरसे लगा पांवतक जितने रोबटे हैं जो सबके सब बोल उठे और सराहा करें और इतने बरस इसी ध्यानमें रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेतमें हैं तो भी कुछ न होसके।

इस सर झुकाने के साथही दिन रात जपताहूं उस दाता के पहुंचे हुये प्यारे को। जिस लिये थों कहा है। "जो तू न होता मैं कुछ न बनाता" और उसके चचेरा-भाई-जिसका-व्याह-उस के घर हुआ