पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१८

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कुँवर उदयभान चरित।


था उसपर बड़ी कड़ी पड़ी। सुन्तेही रानी केतकी के मा बापने कहा उनके हमारे नाता नहीं होने का उनके बाप दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोड़ के बातें करते थे और जो टुक तेवरी चढ़ी देखते थे तो बहुत डरते थे क्या हुआ जो अब वह बढ़गये और ऊंचे पर चढ़गये जिसके माथे हम बांयें पांव के अंगूठे से टीका लगावें वह महाराजों का राजा हो जाय किसका मुँह जो यह बात हमारे मुँह पर लाये बाम्हन ने मनमें जल भुन के कहा अगले भी इसी विचार में थे और भरी सभा में यही कहते थे हम में उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं है पर कुँवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती नहीं तो ऐसी ओछी बात कब हमारे मुँह से निकलती यह सुनतेही महाराज ने उस ब्राम्हन के सिर पर फूलों की छड़ी फेंक मारी और कहा जो बाम्हन की हत्या का धड़का न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता इसको लेजाओ और एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो जो इस बाम्हन पर वीती सो सब कुँवर उदयभान के मा बाप ने सुन्तही लड़ने की ठान अपना ठाठ बांधकर दल बादल जैसे घिर आते हैं चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी रानी केतकी सावन भादों के रूपसे रोने लगी और दोनों के जी पर यह आगयी। यह कैसी चाहत है जिसमें लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा। कुँवर ने चुपके से यह लिखः भेजा "अब मेरा कलेजा टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है दोनों महाराजों को आपस में लड़ने दो किसी डौलसे जो हो सके तो तुम मुझे अपने पास बुलालो हम तुम दोनों मिलके किसी और देस को निकल चलें जो होनी हो सो हो सिर रहता रहे जाता जाय? एक मालन जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे उसने कुँवर की चिट्ठी किसी फूल पँखड़ी में लपेट सपेट के रानी केतकी