कर्म-शक्ति उत्पन्न हो, जिससे हमें अपनी दुःखावस्था की अनुभूति हो, हम देखें कि किन अन्तर्बाह्य कारणों से हम इस निर्जीवता और ह्रास की अवस्था को पहुँच गये, और उन्हें दूर करने की कोशिश करें।
हमारे लिए कविता के वे भाव निरर्थक हैं, जिनसे संसार की नश्वरता का आधिपत्य हमारे हृदय पर और दृढ़ हो जाय, जिनसे हमारे हृदयों में नैराश्य छा जाय। वे प्रेम-कहानियाँ, जिनसे हमारे मासिक-पत्रों के पृष्ठ भरे रहते हैं, हमारे लिए अर्थहीन हैं अगर वे हममें हरकत और गरमी नहीं पैदा करतीं। अगर हमने दो नवयुवकों की प्रेम कहानी कह डाली, पर उससे हमारे सौन्दर्य प्रेम पर कोई असर न पड़ा और पड़ा भी तो केवल इतना कि हम उनकी विरह व्यथा पर रोये, तो इससे हममें कौन-सी मानसिक या रुचि-सम्बन्धी गति पैदा हुई? इन बातों से किसी ज़माने में हमें भावावेश हो जाता रहा हो; पर आज के लिए वे बेकार हैं। इस भावोत्तेजक कला का अब ज़माना नहीं रहा। अब तो हमें उस कला की आवश्यकता है जिसमें कर्म का सन्देश हो, अब तो हज़रते इक़बाल के साथ हम भी कहते हैं––
रम्ज़े हयात जोई जुज़दर तपिश नयाबी,
दरकुलजुम आरमीदन नंगस्त आबे जूरा।
ब आशियाँ न नशीनम ज़े लज्ज़ते परवाज़,
गहे बशाख़े गुलम गहे बरलबे जूयम।
[अर्थात्, अगर तुझे जीवन के रहस्य की खोज है तो वह तुझे संघर्ष के सिवा और कहीं नहीं मिलने का––सागर में जाकर विश्राम करना नदी के लिए लज्जा की बात है] आनन्द पाने लिए मैं घोंसले में कभी बैठता नहीं,––कभी फूलों को टहनियों पर तो कभी नदी-तट पर होता हूँ।]
अतः हमारे पंथ में अहंवाद अथवा अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रधानता देना वह वस्तु है जो हमें जोड़ता, पतन और लापरवाही की ओर ले जाती है और ऐसी कला हमारे लिए न व्यक्ति-रूप में उपयोगी है और न समुदाय रूप में।