जब तक उनका मस्तिष्क इस योग्य नहीं बनता कि हर एक प्रकार की चीज़ों को वे अलग-अलग ख़ानों में संगृहीत कर लें। बरसों के अभ्यास के बाद यह योग्यता प्राप्त हो जाती है इसमें सन्देह नहीं; लेकिन आरम्भकाल में तो नोटबुक का रखना परमावश्यक है। यदि लेखक चाहता है कि उसके दृश्य सजीव हों, उसके वर्णन स्वाभाविक हों, तो उसे अनिवार्यतः इससे काम लेना पड़ेगा। देेखिये, एक उपन्यासकार की नोटबुक का नमूना—
'अगस्त २१, १२ बजे दिन, एक नौका पर एक आदमी, श्याम वर्ण, सुफेद बाल, आँखें तिरछी, पलकें भारी, ओठ ऊपर को उठे हुए और मोटे, मूँछे ऐंठी हुईं।
'सितम्बर १, समुद्र का दृश्य, बादल श्याम और श्वेत, पानी में सूर्य का प्रतिविम्ब काला, हरा, चमकीला; लहरें फेनदार, उनका ऊपरी भाग उजला। लहरों का शोर, लहरों के छींटे से झाग उड़ती हुई।'
उन्हीं महाशय से जब पूछा गया कि आपको कहानियों के प्लाट कहाँ मिलते हैं? तो आपने कहा, 'चारों तरफ।—अगर लेखक अपनी आँखें खुली रखे, तो उसे हवा में से भी कहानियाँ मिल सकती हैं। रेलगाड़ी में, नौकाओं पर, समाचार-पत्रों में, मनुष्य के वार्तालाप में और हज़ारों जगहों से सुन्दर कहानियाँ बनाई जा सकती हैं। कई सालों के अभ्यास के बाद देख-भाल स्वाभाविक हो जाती है, निगाह आप ही आप अपने मतलब की बात छाँट लेती है। दो साल हुए, मैं एक मित्र के साथ सैर करने गया। बातों ही बातों में यह चर्चा छिड़ गई कि यदि दो के सिवा संसार के और सब मनुष्य मार डाले जायँ तो क्या हो? इस अंकुर से मैंने कई सुन्दर कहानियाँ सोच निकाली।'
इस विषय में तो उपन्यास-कला के सभी विशारद सहमत हैं कि उपन्यासों के लिए पुस्तकों से मसाला न लेकर जीवन ही से लेना चाहिये। वालटर बेसेंट अपनी 'उपन्यास-कला' नामक पुस्तक में लिखते हैं—
'उपन्यासकार को अपनी सामग्री, आले पर रखी हुई पुस्तकों से