जाते हैं, दूसरी ओर पण्डितगण, संस्कृत और प्राकृत के शब्द ठूँस रहे हैं और दोनों भाषाएँ जनता से दूर होती जा रही हैं। हिन्दुओं की ख़ासी तादाद अभी तक उर्दू पढ़ती जा रही है लेकिन उनकी तादाद दिन-दिन घट रही है। मुसलमानों ने हिन्दी से कोई सरोकार रखना छोड़ दिया। तो क्या यह तै समझ लिया जाय कि उत्तर भारत में उर्दू और हिन्दी दो भाषाएँ अलग-अलग रहेंगी, उन्हें अपने-अपने ढंग पर, अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार बढ़ने दिया जाय, उनको मिलाने की ओर इस तरह उन दोनों की प्रगति को रोकने की कोशिश न की जाय? या ऐसा सम्भव है कि दोनों भाषाओं को इतना समीप लाया जाय कि उनमें लिपि के सिवा कोई भेद न रहे। बहुमत पहले निश्चय की ओर है। हाँ कुछ थोड़े-से लोग ऐसे भी हैं जिनका ख़याल है कि दोनों भाषाओं में एकता लाई जा सकती है, और इस बढ़ते हुए फ़र्क को रोका जा सकता है, लेकिन उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ है। ये लोग हिन्दी और उर्दू नामों का व्यवहार नहीं करते, क्योंकि दो नामों का व्यवहार उनके भेद को और मज़बूत करता है। यह लोग दोनों को एक नाम से पुकारते हैं और वह 'हिन्दुस्तानी' है। उनका आदर्श है कि जहाँ तक मुमकिन हो लिखी जानेवाली ज़ुबान और बोलचाल की ज़ुबान की सूरत एक हो, और वह थोड़े से पढ़े-लिखे आदमियों की ज़ुबान न रहकर सारी क़ौम की ज़ुबान हो। जो कुछ लिखा जाय उसका फ़ायदा जनता भी उठा सके, और हमारे यहाँ पढ़े-लिखों की जो एक जमाअत अलग बनती जा रही है, और जनता से उनका सम्बन्ध जो दूर होता जा रहा
है वह दूरी मिट जाय और पढ़े-बे-पढ़े सब अपने को एक जान, एक दिल समझें, और क़ौम में ताक़त आवे। चूँकि उर्दू ज़ुबान अरसे से अदालती और सभ्य-समाज की भाषा रही है, इसलिए उसमें हज़ारों फ़ारसी और अरबी के शब्द इस तरह घुल-मिल गये हैं कि बज्र देहाती भी उनका मतलब समझ जाता है। ऐसे शब्दों को अलग करके हिन्दी में विशुद्धता लाने का जो प्रयत्न किया जा रहा है, हम उसे ज़ुबान और