पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१६५
 

 

परिच्छेद २८
धूर्तता

१—स्वयं उसके ही शरीर के पंच तत्व मन ही मन उस पर हँसते है जबकि वे पाखण्डी के पाखण्ड और चालबाजी को देखते है।

२—वह प्रभावशाली मुखमुद्रा किस काम की, जबकि अंत करण मेंं बुराई भरी है और हृदय इस बात को जानता है

३—वह कापुरुष जो तपस्वी जैसी तेजस्वी आकृति बनाये रखता है उस गधे के समान है जो सिंह की खाल पहिने हुए घास चरता है।

४—उस आदमी को देखो, जो धर्मात्मा के वेश में छुपा रहता है और दुष्कर्म करता है। वह उस बहेलिये के समान है जो झाड़ी के पीछे छुपकर चिड़ियों को पकड़ता है

५—दमी आदमी दिखावे के लिए पवित्र बनना है और कहता है— मैंने अपनी इच्छाओं, इन्द्रियलालसाओं को जीत लिया है, परन्तु अन्त में वह पश्चात्ताप करेगा और रो रो कर कहेगा—मैंने क्या किया, हाय मैने क्या किया?

६—देखो, जो पुरुष वास्तव में अपने मन से तो किसी वस्तु को छोड़ता नहीं, परन्तु बाहर त्याग का आडम्बर रचता है और लोगों को ठगता है, उससे बढ़ कर कठोर हृदय कोई नहीं है।

७—गुमची देखने में सुन्दर होती है, परन्तु उसकी दूसरी ओर कालिमा होती है। कुछ आदमी भी उसी की तहर होते हैं। उनका बाहिरी रूप तो सुन्दर होता है, किन्तु अंत करण बिल्कुल कलुषित होता है।

८—ऐसे लोग बहुत हैं कि जिनका हृदय तो अशुद्ध होता है पर तीर्थों स्नान करते हुए घूमते फिरते हैं।

९—वाण सीधा होता है और तम्बूरे में कुछ टेढ़ापन होता है इसलिए मनुष्यों की आकृति से नही, किन्तु उनके कामों से पहिचानो।

१०—जगत् जिससे घृणा करता है यदि तुम उससे बचे हुए हो तो फिर ने तुम्हे जटा रखने की आवश्यकता है और न मुण्डन की।