पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७०]
 

 

परिच्छेद ३१
क्रोध-त्याग

क्रोधत्याग तब ही भला, जब हो निग्रह-शक्ति।
कारण क्षमता के बिना, निष्कल राग-विरक्ति॥१॥
यदि है निग्रहशक्ति तो, कोप, घृणामय व्यर्थ।
और नहीं वह शक्ति तो, कोप किये क्या अर्थ॥२॥
हानिविधायक कोई हो, तो भी तजदो रोष।
कारण करता सैकड़ों, अति अनर्थ यह दोष॥३॥
क्रोधतुल्य रिपु कौन जो, करदे सर्व-विनाश।
हर्ष तथा आनन्द को, वह है यम का पाश॥४॥
निज शुभ की यदि कामना, कोप करो तो दूर।
टूटेगा वह अन्यथा, कर देगा सब धूर॥५॥
जलता वह ही आग में, जो हो उसके पास।
क्रोधी का पर वंश भी, जलता बिना प्रयास॥६॥
निधिसम मनमें कोप जो, रक्षित रखता आप।
भू में कर वह मारकर, पागल करे विलाप॥७॥
बड़ी हानि को प्राप्त कर, वलता हो यदि कोप।
तो भी उत्तम है यही, करो कोप का लोप॥८॥
इच्छाएँ उसकी सभी, फलें सदा भरपूर।
जिसने अपने चित्त से, कोप किया अति दूर॥९॥
वह क्रोधी मृततुल्य है, जिसे न निज का भान।
पर त्यागी उस क्रोध का, होता सन्त समान॥१०॥