परिच्छेद ५७
भयप्रद कृत्यों का त्याग
दोषी को नृप दण्ड दे, सीमा में अनुरूप।
करे न दोषी दोष फिर, हो उसका यह रूप॥१॥
शक्ति रहे मेरी अटल, यह चाहो यदि तात।
तो कर में वह दण्ड लो, जिसका मृदु आघात॥२॥
असि ही जिसका दण्ड' वह, बड़ा भयंकर भूप।
कौन सखा उसका यहाँ, क्षय ही अन्तिम रूप॥३॥
निर्दय शासन के लिए, जो शासक विख्यात।
असमय में पदभृष्ट हो, खोता तन वह तात॥४॥
भीम अगभ्य नरेश की, श्री यों होती भान।
राक्षस रक्षित भूमि में, ज्यों हो एक-निधान॥५॥
क्षमारहित जो क्रूर नृप, बोले बचन अनिष्ट।
बढ़ा चढ़ा उसका विभव, होगा शीघ्र विनष्ट॥६॥
कर्कश वाणी और हो, सीमा बाहिर दण्ड।
काटे तीखे शस्त्र ये, नृप की शक्ति प्रचण्ड॥७॥
प्रथम नहीं ले मंत्रणा, सचिवों से जो भूप।
क्षोभ उसे वैफल्य से, श्री उसकी हतरूप॥८॥
रहा अरक्षित जो नृपति, पाकर भी अवकाश।
चौंक उठेगा कांप कर, रण में लख निज नाश॥९॥
मूर्ख मनुज या चाटुकर, देते जहाँ सलाह
ऐसे कुत्सित राज्य में, पृथ्वी भरती आह॥१०॥