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परिच्छेद ६५
वाक्-पटुता

वाक् पटुता भी एक है, बड़ा मधुर वरदान।
नहीं किसी का अंश वह, है स्वतंत्र वरदान॥१॥
जिह्वा में करते सदा, जीवन मृत्यु निवास।
इससे बोलो सोचकर, वाणी बुध सोल्लास॥२॥
बढ़ै और भी मित्रता, सुन जिसका परमार्थ।
शत्रुहृदय भी खींचले, वाणी वही यथार्थ॥३॥
पूर्व हृदय में तौल ले, वाणी पीछे बोल।
धर्मबुद्धि इससे मिले, होवें लाभ अमोल॥४॥
वाणी वह ही बोलिए, जो सब की हितकार।
कटे नहीं जो अन्य से, पाकर वाद-प्रहार॥५॥
मन खीचे दे वक्तृता, द्रुत समझे परभाव।
वह नर ही नृपनीति में, रखता अधिक प्रभाव॥६॥
व्याप्त न होता बाद में, जिसको भीति-विकार।
सद्वक्ता उस धीर की, कैसे सम्भव हार॥७॥
वाणी जिसकी ओजमय, परिमार्जित विश्पास्य।
उस नर के संकेत पर, करती वसुधा लास्य[१]॥८॥
परिमित शब्दों में नहीं, जिसे कथन का ज्ञान
उस में ही होती सदा, बहुभाषण की वान॥९॥
समझा कर जो अन्य को, कह न सके निजज्ञान
गन्धहीन वह फूलसम, होता नर है भान॥१०॥


  1. नृत्य।